Book Title: Anand Pravachan Part 10
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 377
________________ पतिव्रता लज्जायुक्त सोहती ३५३ पतिव्रता स्त्री का पति के साथ केवल शारीरिक सम्बन्ध ही होता तो वह अपाहिज, रोगी, दुर्व्यसनी, कोढ़ी या आपद्ग्रस्त पति को कभी की तलाक दे देती, वह उसकी सेवा भी करती तो बेगार समझकर बिना मन से, लोकलज्जा से करती; परन्तु प्रायः कुलीन और पतिव्रता भारतीय महिला ऐसा नहीं करती। वह अपने पति की अंगविकलता, व्याधि, कुष्टरोग या संकटग्रस्तता आदि या अन्य दोषों की ओर नहीं देखती, वह तो पति की विशुद्ध आत्मा को देखती है, पति की सेवा वह विशुद्ध आत्मा समझकर करती है । सौराष्ट्र में बालम्भा की एक पतिव्रता नारी की घटना हमारी आँखें खोल देती है। उसका पति शादी होने के कुछ अर्से बाद ही लकवे से पीड़ित हो गया । अब वह न तो स्वयं उठ-बैठ सकता था, न ही खुद शौच निवारण कर सकता था, आजीविका के लिए पुरुषार्थ करना तो दूर रहा, बैठे-बैठे भी कोई काम कर न सकता था। उसकी धर्मपत्नी ने अपने पर धर्मसंकट देखकर जरा भी मुख म्लान न किया । उसने साहस के साथ इस संकट का सामना करने का विचार किया । वह प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त में उठकर स्वयं आटा पीस लेती, तत्पश्चात् भैंस दुहकर उसका दूध बेच देती। पति को स्वयं उठाती-बैठाती, स्वयं शौच करवाती, स्वयं उसका शरीर साफ करती, तत्पश्चात् भोजन बनाकर स्वयं उसके मुँह में कौर देती। __ इस प्रकार एक-दो महीने नहीं, एक-दो वर्ष नहीं, सोलह-सोलह साल तक उसने नाक भौं सिकोड़े बिना, प्रसन्नचित्त से, प्रसन्न मुख से, अम्लान भाव से अपने बीमार एवं असहाय (पराश्रित बने हुए) पति की सेवा-सुश्रूषा की । यद्यपि यह बहन पढ़ी-लिखी नहीं थी, किन्तु भारतीय पतिव्रताओं के गाढ़ संस्कार उसकी रग-रग में रमे हुए थे। कभी उसने अपने पति के विषय में शिकायत नहीं की, न स्वयं कहकर किसी से सहायता मांगी। इस प्रकार कई भारतीय नारियों के त्याग और सेवा के उदाहरण मिलते हैं । पति के साथ अभिन्नता के कारण संघर्ष नहीं पतिव्रता नारी जब पति को अपना सर्वस्व मानकर उसकी इच्छानुगामी बन जाती है, आत्म-समर्पण के कारण पति के साथ अपनी अभिन्नता स्थापित कर लेती है तो फिर उसके लिए संघर्ष की गुंजाइश नहीं रहती। प्रायः पति-पत्नी में परस्पर रुचिभेद, विचारभेद, सम्प्रदायभेद, संस्कारभेद, एवं आचारभेद आदि को लेकर संघर्ष हुआ करता है। संक्षेप में कहूँ तो जब भिन्नता होती है, तब संघर्ष होता है, खासकर मन में भिन्नता होती है तब। एक की राह पूर्व की और दूसरे की पश्चिम की होती है, तभी मनमुटाव का अवसर आता है। परन्तु पतिव्रता तो इस भिन्नता की रस्सी को पहले से ही काट देती है। पति की रुचि ही उसकी रुचि, पति का व्रत, अणुव्रत या अहिंसादि धर्म ही उसका व्रत, अणुव्रत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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