Book Title: Anand Pravachan Part 10
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 404
________________ ३८० आनन्द प्रवचन : भाग १० को आकर देखा तो बगीचे को उजड़ा हुआ देखकर कुपित हो उठा। बाग में कहीं कोई डाली नीरस और शुष्क है, फूल मुरझाए हुए हैं, तो कोई डाली पत्तों से रहित हैं । कोई पौधा सीधा खड़ा है तो कोई नमस्कार कर रहा है। कहीं कलियां खिलकर फूल बन रही हैं तो कहीं विकसित होने से पहले ही मुरझा गई हैं। कहीं कूड़े-कर्कट की दुर्गन्ध उठ रही है। चारों ओर अस्तव्यस्तता और अव्यवस्था ही दृष्टिगोचर हो रही है। बाग की सुन्दरता नष्ट हो गई है, सर्वत्र वह कुरूप एवं उजाड़-सा लग रहा है। यात्री पास से गुजरते हैं, पर यह बाग न तो किसी को प्रसन्न कर पाता है, न सुवासित । इसे देखकर न तो कोई ठहरता है, न कोई प्रशंसा करता है । बहुत बार तो लोग भ्रमवश यह कह बैठते हैं, यह बाग तो नहीं मालूम होता है, यह तो वन मालूम होता है। कई लोग बाग को देखकर नाक-भौं सिकोड़ते हुए टिप्पणी कर बैठते हैं-कितना मनहूस, विद्रूप और रद्दी बाग है ! इसका माली बिलकुल लापरवाह, अयोग्य और अकुशल मालूम होता है। . माली ने बगीचे की ओर ध्यान नहीं दिया, इसकी सेवा तल्लीन होकर नहीं की, इसे अपना समझकर, स्वस्थ और सन्तुलित होकर कार्य नहीं किया। थोड़ा-सा श्रम बेमन से, बेध्यान से, बेगार समझकर किया भी होगा, परन्तु वह व्यर्थ गया। सारी साधना असफल हो गई । माली जब भी अपनी निन्दा और आलोचना सुनताअपनी आत्मा में ग्लानि, क्षोभ, लज्जा, निराशा और असन्तोष का अनुभव करता। यही माली की अनवस्थितता है, जिसके कारण वह अपने ही बगीचे का शत्रु बन गया। पहले माली की तरह आत्मा भी जब अवस्थित होता है, तो अपने को प्राप्त जीवनरूपी बगीचे की अच्छी तरह से सार-संभाल करता है। इसमें से काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, राग-द्वेष आदि के कांटे और झाड़ झंखाड़ उखाड़ फेंकता है; सत्य, अहिंसा आदि धर्म के सुन्दर पौधे लगाता है, जिसमें सद्गुणों के पुष्प खिलते हैं, सत्कार्य रूपी फल लगते हैं। इस जीवनरूपी बगीचे को देखकर, कोई भी सम्पर्क में आने वाला व्यक्ति इसके माली-आत्मा की प्रशंसा करता है, बगीचे से सन्तुष्ट होता है, प्रसन्न होता है। किन्तु दूसरे माली की तरह जो अनवस्थित होकर अपने जीवनरूपी बगीचे की सारसंभाल नहीं करते, लापरवाह होकर जैसे-तैसे इस जीवनरूपी बगीचे को उजाड़ बना डालते हैं। क्रोध, काम, रागद्वेष आदि के कंटीले झाड़-झंखाड़ों को यों ही बने रहने देते हैं, न इसे सत्संग के पानी से सींचते हैं, न इसमें सत्य-अहिंसा आदि के पौधे लगाते हैं, बल्कि हिंसा आदि के जहरीले पौधे जो दिखने में तो सुन्दर दिखते हैं, पर उनमें कोई स्वादिष्ट खाद्यफल नहीं लगते। जीवनरूपी बगीचे पर बिलकुल ध्यान न दिया, इधर-उधर की विषय-वासनाओं की तृप्ति में, मटरगश्ती में लगा रहा । ऐसे मनहूस एवं उजड़े हुए जीवनरूपी बगीचे को देखकर कौन प्रफुल्लित होगा ? कौन उसकी प्रशंसा करेगा ? बल्कि उस माली-अनवस्थित आत्मा को धिक्कारेगा कि इतना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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