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शीलवान आत्मा ही यशस्वी ३६३
एक दिन कीचक की दृष्टि उस पर पड़ गई । उस निर्लज्ज ने अपनी बहन से उसका परिचय पूछा। पता चला कि अभी हाल ही में नियुक्त की गई एक नयी दासी है। बस, कीचक ने उसे अपनी भोग्य वस्तु समझ लिया और विलास कक्ष में उपस्थित होने का आदेश दे दिया । द्रौपदी ने रानी से रक्षा करने की प्रार्थना की तो उत्तर मिला - " मेरा साहस नहीं है, कीचक बड़ा ही दुष्ट और दुर्धर्ष है । इच्छा पूरी न होने पर उपद्रव खड़ा कर देगा । मैं इस विषय में कुछ नहीं कर सकती । और न यह महाराज के ही बस की बात है ।"
कीचक का दुःसाहस सुनकर भीम कोपाविष्ट हो उठे । उन्होंने द्रौपदी से कीचक को महल के पीछे को वाले घुड़साल में लाने को कहा । भीम के परामर्श के अनुसार द्रौपदी ने कीचक को निर्जन घुड़साल में मिलने के लिए आमन्त्रित किया । वस्त्र पहनकर भीम उसके स्थान पर जाकर पहले से ही बैठ गये । नियत समय पर मद्य और कामवासना से उन्मत्त कीचक घुड़साल में आया और भीम को ही द्रौपदी समझकर उन्हें बहुओं में भर लिया । किन्तु जब भीम ने उस कामान्ध को अपनी बलिष्ठ लोह - भुजाओं में दबाया तो उसका सारा नशा उतर गया, लेकिन अब होश आना बेकार था । भीम ने उसे ऐसा दबाया कि उसके प्राण तो निकल गये पर आवाज न निकलने पाई । अनन्तर उन्होंने उसके हाथ पैर तोड़कर उसके पेट में खोंस दिये और उसे गठरी - सा बनाकर अश्वशाला के द्वार पर टांग दिया । भीम चुपचाप अपने शयनकक्ष में आकर सो गये । वासना के कीड़े बलवान कीचक का कोई नाम लेवा भी न रहा, यश तो उसका पहले ही विदा हो चुका था, अब तो उसके अपयश के ढोल पीटे जा रहे थे । वह तो कुत्ते की मौत मरकर कभी का दुर्गति में पहुँच
गया था ।
कीचक को केवल बलवान, सत्तावान या पदाधिकारी होने से ही यश नहीं मिला, इन गुणों के साथ शील होता तो उसे अवश्य ही यश मिलता, लेकिन शील न होने से यह सब गुण या विशेषताएँ पानी से रहित धान की खेती ही सिद्ध हुई ।
शीलवान आत्मा ही सच्चे माने में यशस्वी
शरीर चाहे कितना ही गोरा, बलिष्ठ, सुदृढ़ और सुडौल हो, अगर उसमें शीलवान आत्मदेव विराजमान नहीं है तो उस शरीररूपी मन्दिर की क्या कीमत है, क्या शोभा है ? कोई मन्दिर चाहे कितना ही सुन्दर संगमरमर का बनाया गया हो, जगह-जगह नक्काशी का काम किया गया हो, परन्तु अगर उसमें किसी भी देव या भगवान की प्रतिकृति की प्राणप्रतिष्ठा नहीं की गई है, या वहाँ कोई भी मूर्ति नहीं है तो सगुण-उपासक लोग उस मन्दिर में नहीं फटकेंगे । मन्दिर की प्रतिष्ठा या यशकीर्ति उसमें विराजमान की हुई इष्टदेव की प्रतिकृति के कारण होती है । इसी प्रकार देह बहुत ही शृंगारित की गई हो, सुन्दर वेश-भूषा से सुसज्जित हो, लेकिन उसमें
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