Book Title: Anand Pravachan Part 10
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 424
________________ ४०० आनन्द प्रवचन : भाग १० एकत्रित हो जाते हैं। वह वहां की प्रसारिका है, सैकड़ों पत्रों द्वारा मांग की जाती है कि हमें पेट्राक्रॉस का कार्यक्रम दिखाया जाए। ___ इतनी लोकप्रियता, मधुर स्वर की स्वामिनी कुमारी पेट्राक्रॉस कैसे बनी? आप सोचते होंगे, वह शरीर से सुन्दर, सुरूप या सुडौल होगी, अच्छे वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होगी, लेकिन नहीं, कुमारी पेट्रा के दोनों पैर टूटे हुए हैं, रीढ़ की हड्डी टूटी हुई है, तथा पक्षाघात की वह शिकार हो चुकी है, किन्तु उसका सादा-सीधा शीलसम्पन्न जीवन ही उसके चेहरे पर सदा खेलती रहने वाली मधुर मुस्कान तथा करुणा मधुर स्वर तथा वात्सल्य से सिक्त भाव-भंगिमाओं का कारण है और इसी कारण वह सर्वप्रिय बनी हुई है। __ कौन जानता था कि बचपन में ही अत्यन्त भावुकता के कारण सदा विषादमग्न सी रहने वाली एक बालिका आगे चलकर इतनी महान बन जाएगी। पुस्तकें पढ़ने का बचपन से ही शौक था। ऐसी ही पुस्तकें वह पढ़ती, जो उसकी भावुकता को बढ़ाती थीं। ऐसे में ही पुस्तकों की ही स्वयं ने दुकान कर ली। एक दिन दूकान से लौटते समय भावुकतापूर्ण मनःस्थिति में चली आ रही थी कि सड़क पर भयानक दुर्घटना की शिकार हो गई। रीढ़ की हड्डी टूट गई । पक्षाघात ने भी कुछ ही दिनों बाद आक्रमण कर दिया । जीवन एक तरह से निराश हो गया। माता-पिता ने चिकित्सा में पानी की तरह रुपये बहाकर लड़की के प्राण तो बचा लिए, लेकिन निराशा के गर्त से कौन निकालता ? एक दिन इसी निराशापूर्ण विकलांग स्थिति में भाबुकतावश चौथी मंजिल से कूद पड़ी। इससे दोनों पैर गंवा बैठी। अब तो जीवन और भी लाचार एवं पराधीन हो गया। एक दिन पेट्राक्रॉस गहरे आध्यात्मिक विचार में डूब गई । सोचा-शरीर खराब हो गया है तो क्या हुआ ? मेरी आत्मा तो सुरक्षित है, मेरा मन-मस्तिष्क तो सुन्दर विचार कर सकता है, मेरी वाणी तो दूसरों को सान्त्वना दे सकती है, प्रसन्न कर सकती है ? क्यों नहीं आत्मा को शील और सदाचार से सजाकर बलवान बना लूं । मुझे अब घबराने की जरूरत क्या है ? मौत आयेगी तो माँगने से नहीं, पर अनायास ही आये तो आये । आज पेट्राक्रॉस ने पिजली सारी निराशाभरी मान्यताओं को दिमाग से निकाल फेंका और आत्मा में शील की शक्ति और नई स्फूर्ति लेकर जीना प्रारम्भ किया। आज के मानस-मंथन से उसे अतीव शान्ति, सन्तुष्टि एवं आत्म-तृप्ति मिली । उसने आजीवन ब्रह्मचारिणी रहने और जगत को वात्सल्यपान कराने का संकल्प किया । पैरों के बेकार हो जाने पर पहियों वाली कुर्सी का उसने सहारा लिया। स्वस्थ होते ही किसी उपयुक्त कार्य की खोज में लगी। जिससे भी मिलती-मधुर मुस्कान के साथ । विगत जीवन की सारी कटुता माधुर्य में परिणत कर दी। एकाकीपन नहीं रहा, अनेक लोग उसे प्रेरणामूर्ति मानने लगे। इधर टेलिविजन केन्द्र में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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