Book Title: Anand Pravachan Part 10
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 391
________________ पतिव्रता लज्जायुक्त सोहती ३६७ पुत्री है । वरदत्त ने यह जानकर उसकी ओर देखा, दोनों की चार आँखें हुई । वरदत्त के मन में जिनमती को पाने की लालसा प्रबल हो उठी। खाना, पीना, सोना सब कुछ छोड़कर वह जिनमती की स्मृति में तड़फने लगा। उसके पिता ने सागर से सब बात जान बन्धुदत्त सेठ से अपने पुत्र के लिए उसकी पुत्री जिनमती की याचना की। बन्धुदत्त ने कहा-"आपकी बात युक्तियुक्त है, लेकिन मेरा एक नियम है कि मैं श्रावकवती के सिवाय अन्य किसी को अपनी पुत्री नहीं दे सकता।" वरदत्त ने जब यह शतं सुनी तो जिनमती के साथ विवाह करने की गर्ज से जैनमुनि के पास जाकर भावपूर्वक श्रावकवत अंगीकार कर लिये। बन्धुदत्त को जब यह ज्ञात हुआ तो उसने सहर्ष अपनी पुत्री का विवाह वरदत्त के साथ कर दिया । पति-पत्नी दोनों में परस्पर गाढ़ प्रीति हुई। एक दिन वरदत्त कहीं बाहर गया हुआ था। इसलिए जिनमती को एकाकी जानकर सागर उसके पास आया और कहने लगा-"रुद्रदत्त सेठ की पत्नी के साथ तुम्हारा पति एकान्त में कुछ बात कर रहा था, तुम्हें इसका पता है या नहीं ? सरल स्वभावी जिनमती ने कहा-"यह तो वे जानें या तुम उनके मित्र हो, तुम जानो।" सागर बोला- "मैं जानता हूँ, पर तुमसे पूछे बिना कैसे कहूँ।" जिनमती ने कहा-"बोलो क्या काम है तुम्हारा उनसे ?" इस पर सागर बोला-"मुझे जो काम तुम्हारे साथ है वही काम तुम्हारे पति का रुद्रदत्त की पत्नी के साथ है ।" "मेरे साथ तुम्हारा क्या काम है ?" यह जब जिनमती ने पूछा तो निर्लज्ज सागर ने कहा-"तुम्हारा पति मूर्ख है, जो तुम जैसी सुन्दरी को छोड़कर दूसरी स्त्री के पास जाता है । मगर विषय-रस के स्वाद का जो जानकार हो, उसे तुम्हारी अपेक्षा क्यों न हो?" इस प्रकार की अंटसंट अनर्गल कर्णकटु बात सुनते ही जिनमती को उस पर बहुत गुस्सा आया। वह बोली-“अरे निर्लज्ज, अनार्य ! मेरे प्रति तू ऐसी पापी दृष्टि और विचारणा रखता है । धिक्कार है तुझे ! तू मेरे पति को झूठमूठ कलंकित करना चाहता है । चला जा यहाँ से दुष्ट ! तेरा मुंह देखना भी पाप है।" यह सुनकर सागर चुपचाप अपना-सा मुंह लेकर वहां से चल पड़ा। रास्ते में सामने से आते हुए वरदत्त ने उसे उदास देखकर पूछा-"कहो मित्र ! उद्विग्न क्यों हो?" सागर आँसू बहाता हुआ बोला-"मित्र ! कहने जैसी बात नहीं है, पर तुमसे छिपकर भी नहीं रख सकता । आज की ही बात है, जब मैं तुमसे मिलने, तुम्हारे घर गया तो तुम्हारी स्त्री जिनमती निर्लज्ज होकर मेरे सामने काम-कुचेष्टा करने लगी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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