Book Title: Anand Pravachan Part 10
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 400
________________ ३७६ आनन्द प्रवचन : भाग १० इसीलिए यहाँ कहा गया है कि आत्मा ही आत्मा का शत्रु है । मारने में बाह्य निमित्त बनने वाला शत्रु तो सिर्फ एक जन्म का है, एक ही शरीर का नाश करता है, लेकिन आत्मा - दुष्कर्मकारी आत्मा जब शत्रु बन जाता है तो वह अनेक जन्मों तक दुःख देता है, अनेक जन्मों में प्राप्त होने वाले शरीर को नष्ट कर देता है, वह अनेक जन्मों तक पिण्ड नहीं छोड़ता । आत्मा ही आत्मा का शत्रु स्वयं बनता है, दूसरा कोई उसे बनाने नहीं आता । अपनी ही गलती से, अपने ही विपरीत विचारों से, अपने ही भयंकर दुष्कर्मों से वह अपना दुश्मन बन जाता है । जैसे कोई व्यक्ति यह जानता है कि अधिक ठूंसकर खाने से अजीर्ण और पेट का रोग हो जाता है, फिर भी स्वादिष्ट वस्तु देखते ही वह उन पर टूट पड़ता है और इतना अधिक खा जाता है कि अजीर्ण और उदर रोग उसे घेरे बिना नहीं रहते । अब बताइए, अजीर्ण या उदर रोग के लिए वह भोजन जिम्मेवार है या भोजन बनाने वाली उसकी पत्नी या उस भोजन की वस्तुओं का उत्पादक अथवा भगवान् जिम्मेवार है, अथवा वह खुद ही जिम्मेवार है ? वास्तव में अजीर्ण या उदर रोग के लिए वह स्वयं ही जिम्मेवार है, दूसरा नहीं । अधिक भोजन करने वाला ही अपने पेट का शत्रु है, दूसरा नहीं; उसी प्रकार दुष्कर्म करने वाला आत्मा ही अपना शत्रु है, दूसरा नहीं । एक गाड़ीवान बैलगाड़ी चला रहा है, बैल उसके इशारे पर चल रहे हैं । गाड़ीवान देख रहा है कि आगे एक गहरा खड्डा है, परन्तु इस भ्रम में रह गया कि खड्डा अभी काफी दूर है, तब तक बैलों को सीधा चलने दूं, खड्डा आएगा तो बैल अपने आप मुड़ जाएँगे । गाड़ीवान गाफिल होकर बैलों को दौड़ाता रहा। गाड़ी सहसा खड्डे में गिर गई । अब बताइए गाड़ी के खड्ड े में गिरने का दोष किसका है ? गाड़ी का बैलों का या गाड़ीवान का ? इसमें दोष गाड़ी का नहीं, क्योंकि गाड़ी को कोई ज्ञान नहीं होता, वह जड़ है, वह स्वतःचालित नहीं होती । बैलों का कोई दोष नहीं है, क्योंकि वे तो गाड़ीवान के इशारे पर चलते थे । उन बेचारों का क्या कसूर, जिधर गाड़ीवान ने नकेल घुमाई, उधर ही वे चल पड़े । उनके नथुनों में 'नाथ' पड़ी थी, जिधर का संकेत मिला, उधर ही वे चल पड़े थे । अतः वास्तव में दोष गाड़ीवान का ही माना जायगा, क्योंकि गाड़ी चलाने की सम्पूर्ण जिम्मेवारी उसी की थी। गाड़ीवान ही अपनी गाड़ी का शत्र ु बन गया था । इसी प्रकार आत्मा गाड़ीवान है । शरीर गाड़ी है । मन के सहारे से आत्मा के इशारे से शरीररूपी गाड़ी चलती है । इन्द्रियाँ उस गाड़ी को चलने में गाड़ी के अंगोपांगों की तरह सहायक होती हैं । शरीररूपी गाड़ी नष्ट हो जाती है या उसकी को क्षति होती है या प्रमाद या असावधानीवश कोई दुष्कर्म करती है तो उसका जिम्मेवार आत्मारूपी गाड़ीवान है । इन्द्रियाँ या मन तो यह कहकर बच जाएँगे कि हम क्या करें, हमें तो आत्मा ने जिधर मोड़ना चाहा, उधर हम मुड़ गये, हम तो आत्मा द्वारा संचालित हैं, आत्मा ने पतन के खड्ड में गिरने को हमें मजबूर कर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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