Book Title: Anand Pravachan Part 10
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 398
________________ ३७४ आनन्द प्रवचन : भाग १० हाँ तो मैं कह रहा था कि इस प्रकार निमित्तों पर दोषारोपण करके मनुष्य अपने द्वारा किये हुए अपराध से बरी हो जाएगा, तो पोपाबाई के राज्य की सी अव्यवस्था हो जाएगी । कोई भी अपने कर्म के लिए जिम्मेवार न होगा । सभी दूसरेतीसरे निमित्त के गले दोष मढ़ देंगे । इसीलिए भारतीय धर्म इसी बात पर जोर देते हैं कि प्रत्येक आत्मा अपने द्वारा किये गये अच्छे-बुरे कर्मों के लिए जिम्मेवार है । वह उसके फल भोगे बिना छूट नहीं सकता । और इसी सिद्धान्त में से यह बात प्रतिफलित होती है कि आत्मा जब अपने कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी है, तब वह अज्ञान या मोहवश जब बुरे कर्म करता है, तब उन कर्मों का बुरा फल किसको भोगना पड़ेगा ? आत्मा को ही न ? इसीलिए आत्मा को आत्मा का शत्रु बताया है । गौतम महर्षि ने आत्मा को आत्मा का अहित करने वाला शत्रु बताया है । अग्नि की चिनगारी और शत्रु को मामूली और छोटा नहीं समझना चाहिए। जिस शत्रु को महापुरुष पराजित कर देते हैं, वह सर्प से भी अधिक भयंकर होता है । अपने जिन दोषों के कारण वह पराजित होता है, हारने के बाद उसके छल, कपट, विश्वासघात, द्रोह, धोखा, ठगी आदि दोष कई गुना बढ़ जाते हैं। साथ ही उसकी विकरालता भी बढ़ जाती है । इसलिए शत्रु से तो हर समय सावधान एवं सतर्क रहना चाहिए। वह कब कैसे हमला कर बैठेगा, यह कुछ कहा नहीं जा सकता । जो साधक तृण के समान शत्रु को पर्वत के समान विशाल समझकर अपने सुरक्षा साधनों को बढ़ाते रहते हैं, वे शत्रु से कभी पराजित नहीं हो सकते । उत्तराध्ययन सूत्र में इस सम्बन्ध में साधक को सुन्दर मार्गदर्शन दिया है न तं अरी जं से करे से नाहि पच्छातावेण कंठछेत्ता करेइ, अप्पणिमा दुरप्पा । मच्चुमुहे तु पत्ते, दयावहूणो ॥ "सिर काटने वाला शत्रु भी उतना अहित नहीं करता, जितना दुराचरण में लगी अपनी आत्मा करती है । दयाशून्य दुराचारिणी को अपने दुराचरण का पहले ध्यान नहीं आता, परन्तु जब वह मृत्यु के मुख में पहुँचता है, तो अपने सब दुराचरणों का स्मरण करते हुए पछतता है ।" प्रश्न होता है कि सिर काटने वाला शत्रु तो प्रत्यक्ष ही शरीर का नाश कर देता है, किन्तु आत्मा ऐसा कुछ नहीं करता, तब फिर आत्मा को गला काटने वाले शत्रु से भी बढ़कर क्यों बताया गया ? Jain Education International भारतीय दर्शन आत्मा को नित्य और शरीर को अनित्य एवं नाशवान मानते । इस दृष्टि से आस्तिक दर्शन कहते हैं कि शरीर के नष्ट हो जाने के साथ, आत्मा For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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