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अनवस्थित आत्मा : अपना ही शत्रु ३७३ या मिश्री एक व्यक्ति खाता है और मुंह ईश्वर का मीठा होगा, ऐसा कदापि होता नहीं। अगर परिस्थितिवाद या भ्रान्त ईश्वरवाद को लेकर चलें तो कोई भी अपराधी दण्डित नहीं किया जा सकता। फिर तो 'पोपाबाई के राज्य' वाली कहावत चरितार्थ हो जाएगी
अन्धेर नगरी, चौपट राजा।
टके सेर भाजी, टके सेर खाजा ॥ पोपाबाई के पास न्याय के लिए एक मुकदमा आया । एक व्यक्ति यह फरियाद लेकर पहुँचा कि मैं जा रहा था कि अचानक मेरे पर अमुक मकान की दीवार गिर पड़ी, मुझे चोट लगी। इसका न्याय कीजिए । पोपाबाई ने जिसके मकान की दीवार थी, उसे बुलवाया और सजा देने को कहा।
उस मकान के मालिक ने कहा-"मैं क्या करूँ, मिस्त्री (राज) ने दीवार कच्ची बना दी।"
पोपाबाई ने मिस्त्री को बुलाकर कहा- "इसे सजा दो कि इसने दीवार कच्ची क्यों बनायी ?"
मिस्त्री ने कहा-"रानीजी ! मैं जब यह दीवार बना रहा था, तब एक युवती गहने पहने हुए छम-छम करती आ रही थी। मेरा ध्यान उस तरफ बरबस खिंच गया, इसलिए दीवार कच्ची रह गयी।"
तुरन्त पोपाबाई ने उस युवती को बुलाया और कहा-"तुम गहने पहनकर छम-छम करती क्यों आ रही थीं, जिससे राज मिस्त्री का ध्यान उचट गया और उसने दीवार कच्ची बना दी।"
उसने कहा-"रानी साहब ! मैं क्या करूँ, सुनार ने गहने इसी प्रकार के घड़ दिये।" बुलाया सुनार को और उससे जवाब तलब किया।
सुनार ने कहा- "मैं क्या करता, मुझे ऐसा ही उपदेश एक गुरुजी ने दिया था कि कार्य ऐसा करो जो स्वयं बोले।" उक्त गुरुजी को बुलाया गया । वह बड़ा ही लम्बा चौड़ा मुस्टंड था । उसके गुरु द्वारा इस नगरी में रहने का निषेध करने पर भी सस्ती रबड़ी मिलती देख जमा हुआ था। आज जब पकड़ा गया तो उसके होश गुम हो गए । घिघियाता हुआ वह गुरु से फांसी की सजा से छुटकारा पाने का उपाय पूछने लगा । उन्होंने उसे युक्ति समझा दी और जिस समय पर पोपाबाई द्वारा फांसी की सजा दी जाने वाली थी, उस समय गुरु चेला दोनों वाद-विवाद करने लगे।
चेला कहता-मैं फांसी पर चढूंगा, गुरु कहते, मैं। पोपाबाई ने जब इसका रहस्य पूछा तो गुरु ने कहा- "इस मुहूर्त में जो फांसी पर चढ़ेगा, वह सीधा स्वर्ग में जाएगा।"
चट से पोपाबाई ने कहा-"तब तो फांसी मेरी और मेरे बाप की है, तुम सब हटो, मैं ही इस फाँसी पर चढ़गी।" निदान, पोपाबाई फांसी पर स्वयं चढ़ी और उसके देहान्त के साथ ही इस अराजकतावाद का अन्त हो गया।
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