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५८ अनवस्थित आत्मा : अपना ही शत्रु
धर्मप्रेमी बन्धुओ !
आज से कुछ दिनों तक आध्यात्मिक जीवन के सम्बन्ध में विश्लेषण चलेगा, ऐसी आशा है ।
आध्यात्मिक जीवन का केन्द्रबिन्दु आत्मा है । आत्मा अपने आप में वैसे तो निश्चय दृष्टि से शुद्ध है, किन्तु जब वह शरीर के साथ जुड़ती है, और उसके निमित्त से राग, द्वेष, मोह आदि विकार आते हैं और उस पर कर्मबन्धों का आवरण पड़ जाता है, तब आत्मा शुद्ध नहीं रहती, निर्लेप और निरामय नहीं रहती । इसलिए राग-द्वेषादि या कषायादि विकारों से लिप्त आत्मा अपने मूल स्वभाव में स्थित नहीं रहती । ऐसी स्थिति में, जो आत्मा अपने लिए हितकर, सुखकर, श्रेयष्कर और अभ्युदयकर बन सकती थी, वही आत्मा विषय कषायों एवं रागद्वेषादि विकारों से लिप्त एवं अनवस्थित होकर अपने लिए शत्रु बन जाती है । इसी बात को महर्षि गौतम इस जीवनसूत्र से कहना चाहते हैं
'अप्पा अरी हो अणवद्वियस्स'
" अनवस्थित व्यक्ति की आत्मा ही उसके लिए शत्रु हो जाती है ।"
गौतमकुलक का यह सैतालीसवाँ जीवनसूत्र है। आइए, अब हम इस जीवनसूत्र को विभिन्न पहलुओं को जानें -समझें ।
आत्मा ही आत्मा का शत्रु : कैसे और क्यों ?
कई लोग कहते हैं कि हमारी आत्मा तो परमात्मा के हाथों में है, उसे सुधारना या बिगाड़ना, अच्छा बनाना या बुरा बनाना उसी के अधीन है, हम तो उसके हाथों की कठपुतली हैं। वह हमें जैसे चाहे नचा सकता है । ऐसे लोग जब कोई अच्छा काम करते हैं या जब किसी पर उपकार करते हैं, किसी को पढ़ा-लिखाकर होशियार बनाते हैं, लड़के-लड़कियों की अच्छे ठिकाने शादी कर देते हैं, खूब धन कमा लेते हैं तब तो वे उन सब बातों का श्रेय स्वयं लूटते हैं, स्वयं अपने मुँह से डींग हांकने लगते हैं कि मैंने यह किया, वह किया, मैं ऐसा न करता तो, ऐसा हो जाता, मैंने ही सब कुछ किया । किन्तु जब कोई कार्य बुरा हो जाता है, व्यापार
घाटा लग जाता है, लड़का बिगड़ जाता है, सम्पत्ति उड़ा देता है, या किसी का वियोग हो जाता है, किसी आसामी पर रुपया डूब जाता है, तब उसका दोष वह अपने
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