Book Title: Anand Pravachan Part 10
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 392
________________ ३६८ आनन्द प्रवचन : भाग १० वैसे तो वह कई दिनों से मुझे अपने काम-जाल में फंसाने का प्रयत्न कर रही थी, पर मैं टालता रहा। आज उसने मुंह से साफ कह ही दिया कि तुम्हें मेरी इच्छापूर्ण करनी ही होगी। मैं किसी बहाने से उसके चंगुल से छूट कर आया हूँ। तुम मिल गए, इसलिए मैंने तुमसे यह बात कही है, ताकि जिनमती मेरे विषय में कुछ और बात कहे और तुम उसे सच मान बैठो । स्त्रीस्वभाव ही कपटभरा होता है।" अपने कपटी पापिष्ठ मित्र के वचन सुनकर वरदत्त क्रुद्ध होकर घर आया। जिनमती प्रसन्न होकर उसके पैर धोने लगी, तब सहसा वरदत्त ने छुरी से उसकी नाक काट ली। चारों ओर हाहाकार मच उठा। सभी कुटुम्बीजन एकत्र हुए, वरदत्त को उपालम्भ देने लगे-'अरे पापी, निष्करुण, कुलकलंक ! यह अकार्य तूने क्यों किया ? जिनमती सरीखी गुणवती, शीलवती, उत्तमकुल जाति की, पवित्र, लज्जावती महिला पर यह अत्याचार ! धिक्कार है तुझे ! यह कोलाहल सुनकर राजपुरुष आए और वरदत्त को गिरफ्तार करके ले गए। राजा ने उससे पूछा- "तुम्हारी पत्नी ने क्या अपराध किया था, जिससे तुमने राजदरबार में फरियाद किये बिना अपने हाथ से ही निग्रह किया ?" वरदत्त ने कहा- 'मेरा मित्र सागर, उसके सभी अपराध जानता है।" राजा ने अनुचरों द्वारा सागर को ढूंढ़कर पकड़ लाने का आदेश दिया। सागर को बाँधकर राजा के सामने लाया गया । राजा ने पूछा-"अरे पापी, दुराचारी ! उस महासती ने क्या अपराध किया था, सच-सच बोल !" सागर थरथर काँपने लगा, बोला नहीं। चाबुक उसकी पीठ पर पड़े, तब उसने सारा वृतान्त सच-सच बता दिया। राजा ने दोनों को अपराधी जानकर कैदखाने में डलवा दिया। इधर जिनमती को अपने पर मिथ्या दोषारोपण की तथा नासाछेदन की पीड़ा थी, तो भी उसने न तो अपने पति के प्रति अशुभ चिन्तन किया, न दुष्ट सागर के प्रति । उसने स्वस्थ होकर चिन्तन किया-मैंने किसी जन्म में दुष्कर्म किये होंगे उन्हीं कार्यों के फल उदय में आये हैं । दूसरे तो निमित्त मात्र हैं। मेरा ही पूर्वकृत कर्म-दोष है। मुझे इतना ही दुःख है कि इन्होंने मेरे कुल एवं पवित्र धर्म की लघुता दिखायी।' वह जिनेश्वर प्रभु के ध्यान में एकाग्र हो गई। कायोत्सर्गस्थ जिनमती का अखण्ड शील देखकर शासन देवता प्रसन्न हुए। उन्होंने उसकी नाक सुन्दर सलौनी बना दी । आकाश से पुष्पवृष्टि की, देवदुन्दुभि बजाई । उद्घोष किया-"जैनशासन विजयी है, जिसमें जिनमती सरीखी सतियां हैं।" सती जिनमती का विशद् सुनकर राजा स्वयं आया, धन्य-धन्य कहकर हाथ जोड़कर उसका गुणगान करने लगा। जिनमती ने हाथ जोड़कर नम्रतापूर्वक राजा से कहा-"मेरे पतिदेव तथा उनके मित्र सागर को छोड़ दीजिए।" राजा ने वैसा ही किया। जिनमती ने संसार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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