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आनन्द प्रवचन : भाग १०
राजा श्रुतर्वा ने महर्षि को देखा तो हर्ष का पार न रहा। स्वागत किया, पूछा-"बताइए, गुरुदेव ! क्या सेवा है, आज्ञा दीजिए यह राज्यकोष, राज्य एवं हम सब आपके हैं।"
ऋषि-"मुझे पत्नी के आभूषण बनवाने के लिए धन चाहिए। पर शर्त यह है कि जो धन धर्मपूर्वक उपार्जित हो और उचित कामों में खर्च करने से बचा हो, उसी को मैं ले सकता हूँ।"
राजा बोला-"यह तो बड़ी कठिन शर्त है, गुरुदेव ! फिर भी आप लीजिए जाँच कर स्वयं ही।" ऋषि ने जांच-पड़ताल की तो उचित कार्यों में खर्च करने को धन इतना ही था, जिसमें से बचत की गुंजाइश ही नहीं थी। अतः उन्होंने राजकोष में से धन लेने से इन्कार कर दिया।
वहाँ से चलकर ऋषि राजा धनस्व के यहाँ पहुँचे । वहाँ भी यही स्थिति थी। इस प्रकार ऋषि कई धनाढ्य शिष्यों के यहाँ गए, लेकिन उनकी शर्त के अनुसार धन कहीं भी न मिला। वे निराश होकर वापिस लौट रहे थे, बिना धन लिए ही । सोच रहे थे कि लोपामुद्रा से क्षमा माँग लूंगा।।
संयोगवश रास्ते में इल्वण नामक दैत्य मिला। उसने भी महर्षि को प्रणाम करके सेवा का अवसर देने की प्रार्थना की । इल्वण ने महर्षि की धन लेने की शर्त सुनी तो बोला- “यह स्वर्णमुद्राओं से भरा सन्दूक है, इसे आप देख लीजिए। इसके देने से मेरे कोष में तनिक भी कमी न आएगी।" ऋषि का चेहरा प्रसन्न हो उठा, मन चला। किन्तु जाँच की बात पर इल्वण ने कहा--"जांच की क्या आवश्यकता है ? मैं आपके चरणों में यह धन सहर्ष भेंट कर रहा हूँ।" इल्वण की आज्ञा से कुछ नौकर ऋषि के आश्रम में वह सन्दूक पहुँचा आए।
ऋषि ने जब इल्वण का हिसाब जाँचा तो अनीतिपूर्वक उपार्जित धन पाया। वे पश्चात्तापयुक्त स्वर में बोले-"मुझ से बड़ी भूल हो गई। तुम्हारे नौकर जो स्वर्णमुद्राएँ ले गए हैं, वे मेरे काम न आएंगी। उन पर पाप की छाया पड़ी है।"
महर्षि अगस्त्य खाली हाथ लौट आए । लोपामुद्रा से सारी आपबीती कह सुनाई और कहा-'इस पाप की कमाई को लेने से हमारे सात्विक जीवन में बड़ी बाधा पहुंचेगी। इसलिए इस अपवित्र धन को लौटाना होगा।"
ऋषिपत्नी लोपामुद्रा पतिव्रता थी। उसने देखा कि इस धन के लेने से पति के व्रतनियम में बहुत बड़ी बाधा आएगी, तब उसने ऋषि से कहा-"पतिदेव ! मैं भूल गई, मुझे तो आपके व्रत, त्याग, नियम का अनुसरण करना ही श्रेयस्कर था। अतः मुझे अब आभूषण नहीं चाहिए । इस अपवित्र धन से शोभायमान होने की अपेक्षा पवित्रता की रक्षा करते हुए अभावग्रस्त रहना ही उचित है।"
वास्तव में पतिव्रता लोपामुद्रा ने पति के व्रत का औचित्य समझा और तदनुसार सौन्दर्य और शोभा की कामना छोड़कर पतिव्रत धर्म निभाया।
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