Book Title: Anand Pravachan Part 10
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 372
________________ ३४८ आनन्द प्रवचन : भाग १० ने सूर्यदेव का रथ रोक लिया, सुकन्या की पतिनिष्ठा से तुष्ट होकर अश्विनीकुमारों को पृथ्वी पर आकर च्यवन ऋषि की वृद्धावस्था को यौवन में बदलना पड़ा। गान्धारी ने धृतराष्ट्र की पत्नी होने के बाद अनुभव किया कि पतिदेव अन्धे हैं, वे आंखों का सुख नहीं पा सकते । अतः अन्धे पति से अपनी स्थिति अच्छी रहने की अनिच्छुक गान्धारी ने आंखों में आजीवन पट्टी बांधे रहने का व्रत लिया और उसे आजीवन निभाया भी। यह था भारतीय पतिव्रता नारियों का आदर्श चरित्र ! यहाँ की मातृशक्ति के सामने पुरुषवर्ग को अनेक बार नतमस्तक होना पड़ा। जैन इतिहास में प्रसिद्ध सोलह सतियों का नाम कौन नहीं जानता ? इनमें से कुछ बाल-ब्रह्मचारिणी थीं, बाकी अधिकांश विवाहिता, पतिपरायणा सती थीं। भारतीय नारी के हृदय में यही भाव रहा है, रहता है कि मैं अपने आपको पूर्णरूप से पति में मिला दूं। वह सोचती है कि जिस सुख को पति नहीं भोग सकते, उसे मैं क्यों भोगू ? यही भारतीय नारी का पातिव्रत्य है, यही उसकी कठोरतम साधना है। राम की आज्ञा से लक्ष्मण जब सीता को वन में छोड़कर लोटने लगे तो दुःख से व्यथित सीता ने कहा-'लक्ष्मण ! अपने राजा से कह देना कि क्या मुझ निरपराधिनी को इस प्रकार त्याग देना ही तुम्हें शोभा देता है ? क्या तुम्हारे वंश की यही रीति है ? अग्नि-परीक्षा द्वारा शुद्ध प्रमाणित स्त्री को वन में छोड़ देना, किस शास्त्र में लिखा है ?" उस अवस्था में भी राम के प्रति सीता के मन में कोई दुर्भाव पैदा नहीं हुआ । महासती सीता ने अपना दृढ़ संकल्प सुनाया, जो भारतीय नारी के सच्चे पतिप्रेम, शील और सौजन्य का सर्वोत्तम प्रमाण है-- साऽहं तपः सूर्यनिविष्टदृष्टिरूध्वं प्रसूतेश्चरितं यतिष्ये । भूयो यथा मे जननान्तरेऽपि त्वमेव भर्ता न च विप्रयोगः ॥' ___ "मैं प्रसूति से छुटकारा पाते ही, सूर्य बिम्ब की ओर एकटक दृष्टि लगाकर ऐसा घोर तप करूंगी, जिससे अगले जन्म में भी तुम्हीं पति के रूप में प्राप्त होओ। इस जन्म की भाँति, फिर कभी तुमसे मेरा वियोग न हो।" भारतीय पतिव्रता नारी दुःख और कष्ट में होने पर कभी अपने पति या ससुराल की निन्दा नहीं करती, वह सदैव प्रसन्नता और सन्तोष के साथ अपना जीवनयापन करती रहती है, पति के सुख में ही, उसका सुख है, पति के दुःख में, वह अपने को पति से अधिक सुखी बनाने का प्रयत्न नहीं करती। हाँ, वह पति की चिन्ता, आधि-व्याधि, और विपत्ति को दूर करने, उसके मन को इनसे मुक्त करने का भरसक प्रयत्न करती है। यही उसकी आजीवन योग-साधना है। इसीलिए एक भारतीय विचारक कहता है १ रघुवंश सर्ग १४/६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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