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शिष्य को शोभा : विनय में प्रवृत्ति २७३ कहा-"शिखिध्वज ! देखो, अपनी सेवा स्वयं करना, ब्रह्मचर्यव्रत पालन, भूमिशयन, वल्कलवसन तथा उपवास और उपासना से बचे हुए समय में धर्मग्रन्थों का स्वाध्याय, चिन्तन, मनन साधना की प्रारम्भिक आवश्यकताएँ हैं। आज तुम्हारी मन्त्रदीक्षा सम्पन्न हुई है । अब से तुम पूजन सामग्री, उपयुक्त पात्र तथा कुशासन अपने पास रखना, पंचोपचारसहित मन्त्र जप करना, और शुभ्रज्योतिस्वरूप निराकार भगवती गायत्री का ध्यान करना । जब तुम इस प्रारम्भिक साधना को सफलतापूर्वक पार कर लोगे, तो आगे उच्चस्तरीय साधना के लिए तुम्हें अग्निदीक्षा दी जाएगी।"
यह कहकर महर्षि उठ खड़े हुए। शिखिध्वज में गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा-भक्ति थी। इसीलिए उन्होंने उसे मन्त्रदीक्षा दी थी । श्रद्धा शिष्य की प्रारम्भिक परख है। आत्म-जिज्ञासा होना और बात है, श्रद्धा और जिज्ञासाएँ तो नास्तिकों में भी होती हैं, किन्तु दुर्बल मानवीय स्वभाव के विपरीत ऊर्ध्वगामी जीवन और कष्टपूर्ण साध. नाओं में जिस धैर्य की आवश्यकता होती है, वह श्रद्धावान, सुविनीत व्यक्तियों में ही होती है। इसीलिए कहा है
श्रद्धावांल्लभते ज्ञानम्, श्रद्धया सत्यमाप्यते । अर्थात् श्रद्धावान ही ज्ञानार्जन करते हैं, श्रद्धा से ही सत्य की प्राप्ति होती है।
हाँ तो, श्रद्धा-भक्तिपूर्ण हृदय से शिखिध्वज ने गुरु-चरणों में प्रणिपात किया, महर्षि ने आशीर्वाद दिया और दोनों अपने-अपने पर्णकुटीरों में चले गये।
एक वर्ष में शिखिध्वज ने भली-भाँति अनुभव कर लिया कि संसार जड़चेतन दोनों प्रकार के परमाणुओं से बना है। जिस प्रकार जड़ परमाणु इधर-उधर घूमते हुए अपना दृश्य जगत बनाते रहते हैं, उसी प्रकार चेतना भी आनन्द प्राप्ति के लिए जहाँ-तहाँ विचरण करती रहती है । जब तक मन जड़ परमाणुओं से बने संसार में सुख खोजता है, तब तक वह भूले हुए पथिक की तरह वन और कांटों में विचरण का-सा कष्ट पाता है, जब वह यह जान लेता कि आत्मा की आनन्द-पिपासा विराटआत्मा बनने से बुझती है, तो फिर वह जन्म-मरण के चक्र में आत्म-चेतना को भटकाता नहीं, वरन अपने भौतिक संस्कारों को प्रक्षालन करने और आत्मा को परमात्मा में अन्तर्लीन करके असीम आनन्द प्राप्ति की तैयारी में जुट जाता है।
साधना का यह द्वितीय (अग्नि-दीक्षा का) द्वार सिद्धान्ततः जितना सरल है, व्यवहार में उतना ही कठिन है। जन्म-जन्मान्तरों का अभ्यासी मन लौकिक एवं भौतिक सुखों को झटपट त्यागने के लिए तैयार नहीं होता । बड़ा भारी संग्राम करना पड़ता है, तब कहीं मन की मलिनताएँ, वासनाएँ दूर होती हैं । इस स्थिति तक पहुंचे हुए साधकों को भी उनकी थोड़ी-सी चूक पथभ्रष्ट कर सकती है, पहाड़ जैसी उपलब्धियों से पलभर में नीचे गिरा सकती है। इसीलिए योग्य गुरु या आचार्य शिष्य को अग्निदीक्षा तभी देते थे, जब वह इतनी पात्रता प्राप्त कर लेता था ।
___ मन्त्रदीक्षा की वर्षगाँठ श्रावणी पर्व पर पड़ती थी। शिखिध्वज ने गुरुदेव के चरणों में सविनय प्रार्थना की-"गुरुदेव ! आपकी कृपा से प्रारम्भिक साधना का
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