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दीक्षाधारी अकिंचन सोहता
प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ!
आज आपके समक्ष एक महत्त्वपूर्ण विषय पर चर्चा करनी है, वह है दीक्षाधारी–साधु-जीवन । .
गणना के अनुसार साधु वेषधारक भारतवर्ष में आज लगभग ७० लाख हैं। परन्तु इनमें सच्चे साधु या मुनि-दीक्षाधारी कितने हैं ? यह गम्भीर प्रश्न है । अगर सच्चे दीक्षाधारी साधु अल्पसंख्या में भी होते तो वे अपने और समाज के जीवन का कायाकल्प, सुधार या उद्धार कर पाते । परन्तु आज जहां देखें, वहां तथाकथित साधुओं में सम्पत्ति और जमीन जायदाद के लिए झगड़ा हो रहा है, आये दिन अदालतों में मुकदमेबाजी होती है, कहीं जातीय कलह है तो कहीं गांव का, तो कहीं स्थान का है, उनके पीछे तथाकथित साधुओं का हाथ है । ये सब झंझट अपना घरबार और जमीन-जायदाद छोड़कर साधुदीक्षा लेने वाले के पीछे क्यों होते हैं ? इन सबका एकमात्र हल क्या है ? इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न को हल करने के लिए महर्षि गौतम ने स्पष्ट शब्दों में कहा---
___ अकिंचणो सोहइ दिक्खधारी 'दीक्षाधारी साधु तो अकिंचन ही सोहता है।' साधु की शोभा निस्पृहता है
गौतमकुलक का यह चवालीसवाँ सूत्र है । अब हम इस पर गहराई से विचार करें कि दीक्षाधारी साधु सच्चे माने में कौन है ? वह किस उद्देश्य से दीक्षित होता है ? उसका अकिंचन रहना क्यों आवश्यक है ? साधुदीक्षा लेने के बाद अकिंचन साधु किस तरह परिग्रह या संग्रह की मोहमाया में फंस जाता है ? अकिंचन बने रहने के उपाय क्या हैं ? तथा अकिंचनता के लिए आवश्यक गुण कौन-कौन से हैं ? दीक्षाधारी : यथार्थ रूप में कौन है, कौन नहीं ?
सच्चा दीक्षाधारी साधु-जीवन स्वीकार करते समय अपने घर-बार, जमीनजायदाद, कुटुम्ब,परिवार एवं सोना-चांदी आदि सभी प्रकार के परिग्रह को हृदय से छोड़ता है। वह इसलिए इन सबको छोड़ता है कि इन सबसे सम्बन्धित ममत्व-बन्धन
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