________________
३१२
आनन्द प्रवचन : भाग १०
आत्मा के सिवाय सांसारिक नाशवान पदार्थों को अपने मानता है, वह दु:खी होता है, चिन्तित रहता है, उनके मोह में ।
जो व्यक्ति आत्मा से भिन्न समस्त पदार्थों को अपने नहीं मानता, वह उनके टूटने - फूटने, वियोग होने या अनिष्ट के संयोग होने पर दुःखित नहीं होता, वह अपनी शान्ति भंग नहीं करता, वह मस्ती में रहता है ।
परमयोगी शुकदेव को आश्चर्य हुआ, कि वैभवपूर्ण जीवन बिताने वाले राजा जनक को लोग विदेह और परमज्ञानी क्यों कहते हैं ? शुकदेव राजा जनक के अतिथि बने । उन्होंने जनक को रत्नजटित पात्रों में स्वादिष्ट भोजन करते तथा बढ़िया कीमती वस्त्र पहनते देखा था । शुकदेव को जनक विदेह का जीवनक्रम इन्द्रिय- लोलुप -सा प्रतीत हुआ । अपार वैभव विलास के बीच रहकर भी कोई योगी रह सकता है, अकिचन और निर्ममत्व रह सकता है, इसकी कल्पना तक भी उनके गले नहीं उतरती थी ।
प्रातःकाल होते ही महाराज जनक ने सरयू स्नान का प्रस्ताव रखा। दोनों ही स्नान करने चले गये । जनक ने बहुमूल्य वस्त्र उतार कर नदी के तट पर रख दिये और स्नान करने के लिए जल में उतरे । शुकदेव ने भी वल्कल वस्त्र उतार दिये । स्नान के बाद दोनों ही सन्ध्यावन्दन में मग्न हो गये। अभी सन्ध्या प्रारम्भ किये कुछ ही समय हुआ था, पास खड़े लोग चिल्लाने लगे – “ आग, आग !" सचमुच समीपवर्ती भवन पूरी तरह आग की लपेट में आ गये थे । घाट पर भी आग फैल जाने की आशंका थी ।
ने
शुकदेव का ध्यान भंग हुआ । उन्होंने देखा कि किनारे का भवन भी धू-धू करके जल रहा है । वह अपने वल्कल बस्त्र लेने तट की ओर दौड़े। पर जनक को कोई चिन्ता न थी, वे ध्यान में मग्न थे । वे सन्ध्या करके उठे तो शुकदेव ने अग्निकांड की सारी घटना कह सुनाई । इस पर जनक विदेह मुस्कराते हुए कहा - " मैं ही क्या, सारी मिथिला ही जल जाती तो भी उसमें मेरा क्या जलता ? क्योंकि मिथिला, वस्त्र या शरीर तक को मैं अपने नहीं मानता ।" शुकदेव का पूरा मनःसमाधान इस घटना से हो चुका था कि जो संसार के समस्त पदार्थों को अपने नहीं मानता, वह पदार्थों के बीच में रहता हुआ भी उनसे लिप्त नहीं होगा, उसकी शान्ति भंग न होगी ।
यद्यपि जनक जैसी निर्लिप्तता और अकिंचनता वैभव के बीच रहते हुए भी रखना बहुत ही दुष्कर है, इसीलिए तो साधु को वैभव विलास की चीजों को लेने तथा उन्हें पाने की इच्छा करने का निषेध किया है, क्योंकि उन बहुमूल्य चीजों को लेने और पाने की इच्छा होते ही उन्हें मोह- बुद्धि से ग्रहण करने और अपनी बना लेने, अपने अधिकार में करने की इच्छा होगी, फिर तो वह परिग्रह और ममत्व
के दलदल में फँस जाएगा ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org