Book Title: Anand Pravachan Part 10
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 368
________________ ३४४ आनन्द प्रवचन : भाग १० "मन्त्रियों की प्रज्ञा टूटे हुए सम्बन्धों को सुधारने या परस्पर मेल कराने के कार्य में, और वैद्यों की प्रज्ञा रोगी को सन्निपात (त्रिदोष) हो जाए तब अभिव्यक्त होती है, वैसे तो बैठा-ठाला कौन अपने को पण्डित नहीं मानता ?" अगर मन्त्री केवल ठकुरसुहाती कहता हो, मुंह पर ही मीठा हो, राजा एवं राज्य का हित नहीं सोचता हो, सच्ची वस्तुस्थिति शासक के सामने प्रस्तुत नहीं करता हो, वह मन्त्री भी शासन-हितैषी नहीं है । नीतिकार कहते हैं पुष्टो ब्रूते न सत्यं यः परिणामे सुखावहम् । मंत्री चेत् प्रियवक्ता स्यात् केवलं स रिपुः स्मृतः ॥ "जो मन्त्री शासक के पूछने पर सत्य-सत्य नहीं कहता, जो कि परिणाम में सुखावह हो, किन्तु केवल प्रिय और मधुर बोलता है, ठकुरसुहाती बातें करता हो, वह मन्त्री शासन और शासक का शत्रु कहा गया है। केवल मीठा बोलने वाला राज्य और राजा का बहुत बड़ा अहित कर देता है।" गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं मन्त्री गुरु अरु वैद्य जो प्रिय बोलहिं भय आस । राज, धर्म, तन, तीन कर होइ बेगहीं नास ॥ मन्त्री, धर्मगुरु और वैद्य इन तीनों पर बहुत बड़ी जिम्मेवारी है । ये अगर अपनी जिम्मेवारी छोड़कर केवल मीठी और ठकुरसुहाती बातें कहें तो तीनों क्रमशः तीन चीजों का शीघ्र नाश कर बैठते हैं । मन्त्री अगर राजा के साथ सिर्फ प्रिय बोले तो राज्य का, गुरु अपने भक्तों को ठकुरसुहाती कहे तो धर्म का एवं वैद्य अपने रोगी को उसकी रुचि के अनुकूल ही बात कहे तो शरीर का नाश कर देगा। इसी प्रकार जो मन्त्री राजा के प्रति अनुकूल न हो, ऊपर-ऊपर से चापलूसी करता हो, अन्दर से राजा के प्रति उसके मन में द्वष या घृणा हो तो वह भी अयोग्य मन्त्री है । मन्त्री के कुछ दोष नीतिकारों ने इस प्रकार बताए हैं प्राप्तार्थग्रहणं द्रव्यपरिवर्तोऽनुरोधनम्, उपेक्षा बुद्धिहीनत्वं भोगोऽमात्यस्य दूषणम् । मूर्ख व्यसनिनं लुब्धमप्रगल्भे भयाकुलम्, ऋरमन्यायकर्तारं नाधिपत्ये नियोजयेत् ॥ "जो मन्त्री राज्य के कर रूप में प्राप्त अर्थ को स्वयं हड़प जाता हो, अथवा जनता से रिश्वत के रूप में अर्थ ग्रहण करता हो, राज्य द्रव्य में गोलमाल करता हो, लोगों की खुशामद या चापलूसी करता हो, शासक या शासन के प्रति जिसकी उपेक्षा हो, जो बुद्धिहीन हो, विषय-भोगों में आसक्त रहता हो, वह मन्त्री दोषयुक्त है। राजा को चाहिए कि मूर्ख, दुर्व्यसनी, लोभी, ढीठ, डरपोक, क्रूर, अन्यायी व्यक्ति को मन्त्रीपद पर नियुक्त न करे। आपने देखा कि मन्त्रीपद कितना उत्तरदायित्वपूर्ण पद है। ऐसे पद का दुरुपयोग करने वाला मूर्ख मन्त्री शासन का सत्यानाश कर बैठता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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