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राजमन्त्री बुद्धिमान सोहता ३३३
इसी दौरान सामन्त राजाओं को ज्ञात हुआ कि कल्पक महामन्त्री को नन्द राजा ने कुए में डाल दिया है, तो अवश्य ही वह वहाँ खत्म हो गया होगा । इसलिए बहुत सुन्दर मौका है, नन्द राजा को उखाड़कर पाटलिपुत्र का राज्य अपने कब्जे में करने का । फलतः समस्त सामन्त राजाओं ने मिलकर पाटलिपुत्र को घेर लिया । नन्द राजा ने नगर के द्वार बन्द करा दिये । जनता अत्यन्त भयभीत हो गई । शत्रुओं के साथ युद्ध करने में असमर्थ नन्द राजा बेचैन हो गया । दाहज्वर पीड़ित की तरह उसे कहीं चैन नहीं पड़ता था । सोचने लगा- जहाँ तक कल्पक महामन्त्री था, वहाँ तक किसी की हिम्मत नहीं होती थी, सिंह गुफा के समान पाटलिपुत्र की ओर आंखें उठाकर देखने की । हाय ! कल्पक के बिना नगर की ऐसी दुरवस्था हुई । जैसे रक्षक के बिना पथिक उपवन को नष्ट कर देते हैं, वैसे ही कल्पक के बिना पाटलिपुत्र का हाल हो रहा है । कल्पक होता तो सबको भगा देता है । दूसरे जो मन्त्री थे, वे तो मूकदर्शकों की तरह यह तमाशा देख रहे थे, किसी को कुछ भी नहीं सूझ रहा था ।
नन्द राजा ने तुरन्त कारागार के अधिकारी को बुलाकर कल्पक का हाल पूछा तो उसने कहा - "स्वामिन् ! अभी तक प्रतिदिन एक सेर कोद्रव तो कोई न कोई लेता है । शायद कल्पक जीवित हो ।"
राजा के आदेशानुसार तुरन्त कुए में एक खटिया उतारी और उस पर कल्पक को बिठाकर निधान की तरह बड़ी सावधानी से उसे बाहर निकाला । नन्द राजा ने पश्चात्ताप करते हुए कल्पक को सारा वृत्तान्त कह सुनाया । अन्त में कहा - " डूबते हुए राज्य का अवलम्बन अब तुम ही हो ।"
कल्पक ने कहा - "मुझे कोट के किनारे-किनारे चारों दिशाओं में फिराकर शत्रु को नजर से दिखाओ ।"
राजा ने कल्पक को शिविका में बिठाकर चारों दिशाओं में कोट पर फिरवाया । यह देखकर शत्रु सोचने लगे – “नन्द राजा हमें नकली कल्पक को दिखाकर डरा रहा है ।" अतः वे और ज्यादा उपद्रव करने लगे ।
यह जानकर कल्पक ने दूत भेजकर अपने सर्वमान्य मन्त्रीप्रमुख को नौका से लेकर
बैठकर वहाँ आता हूँ। वहाँ हम सब विचार करके यथायोग्य करेंगे ।"
शत्रुओं से कहलाया - " तुम सब लोग गंगा नदी में आओ, मैं भी नौका में
दूत के मुख से यह समाचार सुनकर सन्धि करने वाले पुरुष नौका में बैठ
।
गंगा नदी में आये । कल्पक भी उनके सम्मुख आया उसे देख कल्पक ने अंगुली के इशारे से बताया कि पर बाकी क्या रहता है ?"
वहाँ किसी के हाथ में ईख था, इसका मूल और सिरा काट लेने
पूछने पर उनमें से कई सन्धि विग्रहकर्ता यद्यपि बुद्धिमान एवं चतुर थे, पर कल्पक के आशय को न समझ सके । कल्पक का आशय यह था कि जैसे ईख मूल और सिरे से बढ़ती है, वैसे ही सन्धि दोनों की एक सरीखी हो, तभी बढ़ती है । एक सत्य -
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