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दीक्षाधारी अकिंचन सोहता
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परन्तु अकिंचन साधु यदि सहजभाव से ऐसे वैभवपूर्ण पदार्थों के बीच में पहुँच जाए तो वहाँ सहजभाव से ही अपने आत्मभावों में लीन रहे, पदार्थों के विषय में रागभाव या द्वेषभाव में जरा भी चिन्तन न करे, मनोज्ञ पदार्थों को अपनाने, प्राप्त करने, अथवा कब्जे में करने की जरा भी इच्छा न करे तो वह निर्ममत्व, निर्लिप्त और अकिंचन रह सकता है ।
एक उपाश्रय है, वह ७-८ लाख रुपयों का है । अकिंचन साधु को उस उपाश्रय में ठहराया जाता है । उपाश्रय में वह सहजभाव से रहता है, न तो उस उपाश्रय के प्रति उसका राग - मोह है, और न ही उसे अपना मानने की स्वामित्व या ममत्व- बुद्धि है । वह कुछ दिन ठहरता है और चला जाता है; उपाश्रय को छोड़कर । उसने अपने मन में उपाश्रय को नहीं बसाया; न ही उसकी या उसमें मिलने वाली सुख-सुविधाओं की याद में वह तड़पता है, तो समझ लीजिए वह वैभवयुक्त उपाश्रय में रहते हुए भी निर्लिप्त रहा है ।
एक जौहरी ने अपनी दुकान के एक कक्ष में किसी साधु को एक रात्रि के लिए निवास करने की विनती की । सहजभाव से साधु उस कक्ष में ठहर गया । ज्वैलरी हाउस में शो केस में बहुत कीमती हीरे, मोती, पन्ने, नीलम आदि के हार आदि रखे हैं । उसका मालिक तिजोरी खोलकर नोटों की गिनती जौहरी की दुकान पर ठहरने वाला साधु उन कीमती वस्तुओं या धन कर उन पर कब्जा करने या अपना स्वामित्व स्थापित करने या उन्हें लेने या पहनने
करता है । क्या को अपने मान
जो वैभव के बीच
की इच्छा करेगा ? कदापि नहीं । यही साधु की अकिंचनता है, में रहते हुए भी राग - मोह-ममत्व से दूर रहता है, अपनी मस्ती
में
रहता है ।
वह मस्ती में रहता
कभी एक छोटी-सी टूटी-फूटी झोंपड़ी में रहते हुए भी है, उसे विशाल जैन भवन में रहने की याद नहीं सताती । न वह मन में दु:ख का वेदन करता है कि यहाँ कहाँ आ पड़ा, इस झोंपड़ी में, जहाँ किसी प्रकार की सुविधा नहीं ।
अकिंचन साधु को कभी - कभी करोड़पति के यहाँ भी भिक्षा के लिए जाना पड़ता है, वह सहजभाव से जाता है । उस वैभवपूर्ण गृह में उन सब वस्तुओं पर उसकी दृष्टि पड़ती है, धनिक के घर में रखी बहुमूल्य वस्तुओं के विषय में वह कानों से सुन भी चुका है, उस आलमारी का भी स्पर्श हो जाता है, जिसमें धन रखा है । उस घर का मालिक अपने शरीर में सुगन्धित तेल- फुलेल भी लगाये हुए है, उसकी भीनी-भीनी महक भी नाक में प्रविष्ट हो रही है, घर की सुन्दर सुकुमारी युवतियाँ साधु को भक्तिभावपूर्वक वन्दना करते समय दृष्टिगोचर होती हैं, तथा वे उसके पात्र में सरस स्वादिष्ट भोज्य पदार्थ भी देती हैं, परन्तु धनिक के यहाँ पाँचों इन्द्रियों के विषय समुपस्थित होते हुए भी साधु अपनी निर्लेपता, अनासक्ति, निर्ममता या अकिंचनता को भंग नहीं करता । वह इन्हें अपनी चीज न मानकर चलता है । ऐसी अकिंचनवृत्ति से
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