Book Title: Anand Pravachan Part 10
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 334
________________ ३१० आनन्द प्रवचन : माग १० राजा- "वह मेरे पिताजी थे, जो स्वर्गवासी हो गये।" "मैं इससे भी पहले आया, तब एक तीसरा ही आदमी बैठा था, वह अपने को राजा कहता था, वह भी चला गया, उस समय का पहरेदार भी चला गया । आदमी बदल जाते हैं, पर यह मकान वही है और हर बार जब मैं आता हूँ, तब वही झंझट शुरू होती है।" फकीर ने कहा। राजा-"वे हमारे पिता के पिताजी थे, जो स्वर्गवासी हो गए।" इस पर इब्राहीम से उसने कहा- "जब मैं चौथी बार आऊँगा, तब इस सिंहासन पर तुम मुझे मिलोगे या और कोई ? जब इतने लोग एक के बाद एक आये, रहे और चले गये, तब तुम्हीं बताओ यह सराय है या महल? तुम भी कुछ समय तक इसमें टिकोगे फिर चल दोगे। फिर मेरे इसमें टिक जाने में इसका क्या बिगड़ जाएगा?" यह सुनकर इब्राहीम को बोध हुआ। वह तुरन्त सिंहासन से नीचे उतरा और धन्यवाद देते हुए कहा- "आपने मुझे जगा दिया। अब इसमें तुम रुको, मैं चलता हूँ।" यों कहकर इब्राहीम ने राजमहल छोड़ दिया। इब्रहीम सूफियों का एक बड़ा फकीर हो गया। वास्तव में, इस फकीर की तरह जिसके मन में किसी भी वस्तु के प्रति मेरापन (ममत्व) नहीं है जो सब क्षेत्रों एवं स्थानों को सराय समझता है, आत्मा के सिवाय संसार की समस्त वस्तुओं को नाशवान, अस्थायी एवं पराई समझता है, वह सिर्फ इन वस्तुओं का ज्ञाता, द्रष्टा तथा निर्लेपभाव से भोक्ता होता है। परन्तु जो संसार को सराय न मानकर तथा संसार की आत्मातिरिक्त सभी वस्तुओं को अपनी मानता है, आत्मा का तादात्म्य उसके साथ जोड़ता है, फिर उसके वियोग में हाय-हाय करता है । वस्तु से ममत्व करके कोई भी सुख नहीं पाता। तब अकिंचन साधु को उसके प्रति ममत्व और लगाव से सुख कैसे मिल सकेगा? अकिंचन को तत्त्वहष्टि जिस साधक में आकिंचन्यदृष्टि विकसित हो जाएगी, उसे यह चिन्ता नहीं होगी कि मेरे पास कुछ नहीं है तो कल कैसे काम चलेगा। वह कभी भविष्य की चिन्ता से दुःखी नहीं होगा। जो भी सहजभाव से शरीर को मिल गया, उतने में ही वह सन्तोष कर लेगा। वह वस्तुओं पर ममत्व करके उनका गुलाम नहीं बनेगा। गुलाम बनने से मनुष्य की आत्मा दब जाती है। वह अपने आप में मस्त एवं स्वतन्त्र होगा । वास्तव में जो स्वयं गुलाम बनना नहीं चाहता, उसे जबरन कोई भी गुलाम नहीं बना सकता। डायोजिनिस एक मस्त सन्त था। एकाध पात्र के सिवाय उसके पास कुछ नहीं था। न वह कुछ भी संग्रह करता था। एक बार डायोजिनिस कहीं जा रहा था। रास्ते में कुछ लोगों ने उसे पकड़ लिया। उसने पूछा- "मुझे पकड़कर कहाँ ले जा रहे हो ?" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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