________________
दीक्षाधारी अकिंचन सोहता
३०५
छोटा भिक्षु सोचने लगा कि अभी तक बड़े गुरुभाई पुराने जमाने के विचारों के हैं, इन्हें झटपट अपनी बात समझाई नहीं जा सकती। छोटे भिक्षु को भूख लगी, अतः बड़े भिक्षु ने कहा- "कुछ देर प्रतीक्षा करो । मैं अभी भिक्षा लेकर आता हूँ।"
छोटा भिक्षु-"आप भिक्षा लेने जायेंगे ? मुझे तो लोग चार-चार वक्त भोजन लाकर स्थान पर दे जाते हैं।"
बड़ा भिक्षु भिक्षापात्र लेकर गांव में गया और थोड़ी ही देर में रोटी और साग लेकर आया। अब बड़े भिक्षु ने छोटे से कहा-"लो, भिक्षा आ गई है। आहार करो।"
छोटे भिक्षु से अब रहा नहीं गया। वह बोल उठा-"मुझे तो आश्चर्य होता है कि आप ऐसे रद्दी स्थान में और ऐसे रूक्ष मनुष्यों के बीच में कैसे रहते हैं ? मुझ से तो यहाँ थोड़ी देर भी रहा नहीं जाता और यह रूखी रोटी तो कदापि मेरे गले उतर न सकेगी।"
बड़े भिक्षु को लगा कि इस (छोटे भिक्षु) ने बारह वर्ष में सारे ही संयमी भिक्षु-जीवन पर पानी फेर दिया है।
छोटा भिक्षु कहने लगा-"मालूम होता है, आप अपनी विद्या का प्रभाव इन लोगों पर डाल नहीं सके हैं। मेरे आपके बीच में कितना अन्तर है ? यह तो इसी पर से सिद्ध होता है।"
बड़ा भिक्षु बोला-"भिक्षो ! तुम अपने जीवन पर एक बार गहराई से विचार करो कि तुमने घर-बार, जमीन-जायदाद तथा धन एवं सुख-साधन किस लिए छोड़े थे? क्या घर में खाने की कमी थी? क्या वहाँ मकान नहीं थे, पलंग आदि न थे या मिठाइयाँ नहीं थीं? फिर भी उन सबका त्याग क्यों किया था? क्या इसलिए किया था कि तुम पुनः उन त्यक्त वस्तुओं का उपभोग करने के लिए तत्पर बनो ! तुम अपने आपको बौद्ध भिक्षु कहते हो । तथागत बुद्ध का कथन है कि भिक्षुओं को पक्षियों की तरह विचरण और भिक्षाचर्या करनी चाहिए । जैसे पक्षीगण किसी वस्तु का संग्रह नहीं करते, वैसे भिक्षु को भी संग्रह नहीं करना चाहिए। मेरा तो इतना अभ्यास है कि चाहूँ तो इसी समय यहाँ से प्रस्थान कर सकता हूँ, पर तुम से शायद ही ऐसा हो सके, तुम्हें तो मठ या विहार वगैरह याद आएगा, सुन्दर स्वादिष्ट भोजन का स्मरण आयेगा। तुम संसार का त्याग करके पुनः इसमें लिपट गए हो, कैसे तुम स्व-परकल्याण कर सकोगे ? अपना आत्म-विकास कैसे कर सकोगे ?"
छोटे भिक्षु के सरल हृदय में अपने बड़े गुरुभाई की बात गले उतर गई । वह बोला-"भन्ते ! आप ठीक कहते हैं। सच्चा भिक्षु तो संसार से निलिप्त होने के लिए ही संसार को त्याग करके अकिंचन बनता है। मुझे खेद है कि मैं अज्ञानतावश पुनः परिग्रह में फंसकर अपनी अकिंचनता को भूल गया । मैं इसके लिए प्रायश्चित्त करता हूँ, और आपके साथ ही प्रस्थान करता हूँ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org