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ब्रह्मचारी विभूषारहित सोहता २८९ की ओर झांकना या उसके सम्बन्ध में चिन्तन करना या सौन्दर्य प्रसाधन की सामग्री जुटाना कथमपि आवश्यक या हितावह नहीं है। इसीलिए ब्रह्मचर्यव्रती गृहस्थ, कुमार, वानप्रस्थी या साधु-संन्यासी, विधवा, साध्वी आदि के लिए शृंगार या सौन्दर्य प्रसाधन की दृष्टि से विभूषा करने का निषेध किया है । उत्तराध्ययन सूत्र (अ० १६) की गाथा इस विषय की साक्षी है
बिभूसंपरिवज्जेज्जा सरीरपरिमंडणं ।
बंभचेररओ भिक्खू सिंगारत्यं न धारए॥ 'ब्रह्मचर्यरत साधक तथा ब्रह्मचर्यव्रती भिक्षु को शृंगार-कृत्रिम साज-सज्जा के लिए शरीर को सुशोभित करने तथा विभूषा (सजावट) का कोई भी काम नहीं करना चाहिए।'
___ जैन शास्त्र ही नहीं, वैदिक धर्मग्रन्थ भी इस विषय में पूर्ण सहमत हैं कि ब्रह्मचारी को शृंगार, शरीर-मण्डन, छल-छबीली वेशभूषा से शरीर को सजानेसंवारने का काम नहीं करना चाहिए। विद्यासंहिता शिवपुराण में इस सम्बन्ध में कहा गया है
मलस्नानं सुगन्धाधः स्नानं वन्तविशोधनम् ।
न कुर्याद् ब्रह्मचारी च तपस्वी विधवा तथा ॥ 'मल-मलकर बार-बार स्नान, सुगन्धित पदार्थ लगाकर स्नान, श्रृंगार दृष्टि से दांतों की शुद्धि, ब्रह्मचारी, तपस्वी तथा विधवा स्त्री को नहीं करना चाहिए।' महाभारत शान्तिपर्व में भी बताया गया है
सुखशय्या नवं वस्त्रं, ताम्बूलं स्नानमण्डनम् ।
वन्तकाष्ठं सुगन्धं च, ब्रह्मचर्यस्य दूषणम् ॥ 'कोमल गुदगुदी सुख-शय्या, नये चमकीले भड़कीले वस्त्रों का परिधान, ताम्बूल चबाना, मल-मलकर स्नान करके शरीर को सजाना-सँवारना, दतौन की लकड़ी से दन्त-शुद्धि करना और सुगन्धित पदार्थों का सेवन, ये ब्रह्मचर्य को दूषित करने वाले हैं।'
___ हरिकेशवल मुनि जितने बाहर से काले, कुरूप, बेडौल और अनाकर्षक थे, उतने ही अन्तर् से सुन्दर, सद्गुणों से मण्डित, आत्म-सौन्दर्य के उपासक तथा ब्रह्मचर्य एवं तप के कारण तेजस्वी-ओजस्वी थे । उत्तराध्ययन सूत्र में उनके बाह्य रूप का इस प्रकार चित्रण किया गया है
कयरे आगज्छा वित्तस्वे, काले विकराले फोक्कनासे । ओमचेलए पंसुपिसायभूए, संकरसं परिहरिय कंठे॥
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