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आनन्द प्रवचन : भाग १०
रही होगी, पर आज इस प्रकार से अमीरी का दिखावा करने वालों को घृणा, ईर्ष्या, एवं द्वष की दृष्टि से देखा जाता है। अतः अमीरी प्रदर्शन की चीज न बनाकर सेवा और परोपकार की बनाना कहीं अच्छा होता। विभूषा से अमीरों के तन-मन को, आत्मा को कोई लाभ नहीं होता, जबकि विभूषारहित सादे संयमी जीवन से सेवाकार्य करने से तन, मन एवं आत्मा को लाभ होता, प्रतिष्ठा और प्रशंसा भी मिलती। ब्रह्मचारी का तो आत्मबल, आत्मवैभव ही उसका धन है, वह प्रदर्शन की चीज नहीं है, उसके लिए आकर्षक वेश-भूषा और साज-सज्जा की जरूरत नहीं है । नीतिकार भी कहते हैं
'नोडत वेषधरः स्यात्' "मनुष्य को उद्धत और छल-छबीली वेशभूषा नहीं धारण करनी चाहिए।"
फिर दूसरे की आँखों में चुभने वाली, सबसे अलग ढंग की चमक-दमक वाली वेश-भूषा अपनाना उतना ही दुर्विनय और उद्धतता है, जितना दूसरे को विषबुझी बात कहकर जलाना । वेश-भूषा मनुष्य के चरित्र का चित्रण कर देती है। गहरे रंग के चटकीले, आकर्षक कपड़े मनुष्य के उथलेपन को प्रगट करते हैं। इसलिए वेश-भूषा भड़कीली होगी तो वह व्यक्ति के दुविनय का प्रतिनिधित्व करेगी। इसलिए मनुष्य की, खासकर ब्रह्मचर्यनिष्ठ मानव की शोभा सादगी में है, भड़कीली वेश-भूषा में नहीं।
भड़कीली वेश-भूषा और टीप-टाप अपनाने पर जीवन बनावटी होगा, आवश्यकताएँ बढ़ जाएँगी। जितनी आवश्यकताएँ बढ़ेंगी, उतना ही उसे उनकी प्राप्ति के लिए किये जाने वाले प्रयत्न में अपनी शक्तियों को लगाना होगा। ब्रह्मचारी अगर गृहस्थ हो, धन कमाता हो, तो उसे विभूषा के लिए सामग्री प्राप्त करने और उसकी पूर्ति करने की भाग-दौड़ में लगा रहना होगा। साधु या वानप्रस्थी ब्रह्मचारी के लिए तो ऐसा करना दुःशक्य है। यदि किसी भक्त द्वारा वह विभूषा सामग्री की पूर्ति कर भी ले, तो भी उसे सदैव उस भक्त की अनुचित, अनैतिक बातों का समर्थन करना होगा, उसकी आत्मा दबी हुई रहेगी। और यह निश्चित है कि विभूषा-सामग्री की पूर्ति में संलग्न रहने वाला ब्रह्मचारी किसी भी वर्ग का हो, उसे रात-दिन उसी गोरखधन्धे में लगे रहना होगा, फिर उसका ज्ञान, ध्यान, उत्कृष्ट आदर्श, उच्च दृष्टिकोण, महान् लक्ष्य सब छूट जाएगा। इन पर सोचने-विचारने का समय ही नहीं मिलेगा। विभूषा से यह सबसे बड़ी हानि है । सादगी से जीवन यापन करना ही एकमात्र उपाय है, जो ब्रह्मचारी के लिए सहज है, स्वाभाविक है। इसीलिए दशवकालिक सूत्र में विभूषा से होने वाली महाहानि के विषय में चेतावनी दी है
विभूसावत्तियं भिक्खू कम्मं बंधइ चिक्कणं ।
संसारसायरे घोरे, जेणं पडइ दुरुत्तरे ॥ 'जब ब्रह्मचर्यनिष्ठ भिक्षु विभूषानुवर्ती हो जाता है तो नाना प्रकार के चिकने कर्म बाँध लेता है, जिनके कारण वह घोर दुरुतर संसार सागर में गिर जाता है।'
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