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ब्रह्मचारी विभूषारहित सोहता २९१ चाण्डालपुत्र हरिकेशबल ही कहते थे लेकिन आज हमारी भ्रान्ति दूर हो गई। जिनकी इस प्रकार की आत्मिक ऋद्धि है, ऐसा महान् प्रभाव है, वे नीच नहीं हो सकते हैं, वे पूज्य हैं, वन्द्य हैं, महानुभाव हैं ।
आत्मिक सौन्दर्य के धनी मुनि ने उन्हें वास्तविक सौन्दर्य का साक्षात्कार अपने व्यवहार से करा दिया।
तात्पर्य यह है कि ब्रह्मचारी-फिर वह चाहे साधु हो, चाहे गृहस्थ, चाहे वह सती-साध्वी हो या विधवा हो, सब अपने आत्मिक सौन्दर्य की उपासना करते हैं उनका ध्यान शरीर-सौन्दर्य या कृत्रिम प्रसाधनों से शरीर को विभूषित करके सौन्दर्यवृद्धि करने की ओर नहीं होता।
ब्रह्मचारी को प्रदर्शन की क्या आवश्यकता? कोई कह सकता है कि ब्रह्मचारी में बाह्य सौन्दर्य नहीं हो तो उसे थोड़ी-सी प्रसाधन सामग्री से शरीर को सुसज्जित करके स्थूलदृष्टि वाले साधारण लोगों को प्रभावित करने के लिए सौन्दर्य-प्रदर्शन करने में क्या हर्ज है ? परन्तु भारतीय संस्कृति का इस सम्बन्ध में मतभेद है। वह यह तो नहीं कहती कि शरीर और वस्त्रादि स्वच्छ न रखो, वस्त्रों को ठीक ढंग से न पहनो, स्थान की सफाई न करो, परन्तु इन सबके पीछे उसका एक दृष्टिकोण स्पष्ट है कि यह सब श्रृंगार की दृष्टि से, विभूषा की दृष्टि से मत करो । शरीर को स्वस्थ, धर्मपालन में सशक्त और कार्य-सक्षम रखने की दृष्टि से न करो, संयम और यतना के साथ करो, जिससे तुम्हारी भी विकारी दृष्टि न बने । प्रदर्शन के कारण तुम्हारे मन में अहंकार और दर्प जागता है, दूसरों के मन में भी काम विकार पैदा होता है। इसलिए शरीर की विभूषा द्वारा बाह्य सौन्दर्य के प्रदर्शन का ब्रह्मचारी के लिए सख्त निषेध है ।
दूसरी बात यह है कि सौन्दर्य-प्रदर्शन की तो उसे आवश्यकता रहती है, जो आत्मिक सौन्दर्य से रिक्त हो। ब्रह्मचारी तो आत्मिक सौन्दर्य से पूर्ण रहता है; ब्रह्मचर्य के प्रभाव से वह अनेक लब्धियों, शक्तियों और सिद्धियों से समृद्ध रहता है, फिर उसे सौन्दर्य प्रदर्शन करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।
आज तो फैशन, विभूषा और सौन्दर्य प्रदर्शन की महामारी इतनी अधिक बढ़ गई है, कि भारतीय युवक चारित्र, संयम और स्वास्थ्य का दिवाला निकाले बैठा है। ब्रह्मचर्य और संयम की ओर से वह उदासीन है, उसके महत्त्व और लाभ से अनभिज्ञ है। इस कारण उनके चेहरे पर कोई नूर या सौन्दर्य नहीं होता, इस अभाव की पूर्ति वे सौन्दर्य प्रसाधनों से करते हैं। इस कृत्रिम सौन्दर्य-प्रदर्शन के मोह में वे ब्रह्मचर्य, इन्द्रिय-संयम, यम-नियम आदि को बन्धन और व्यर्थ का नियंत्रण समझते हैं। उन्हें यह चिन्ता कदापि नहीं होती कि हम अपने शरीर को सुडौल, स्वस्थ, कार्यक्षम और सशक्त बनावें, अंगों को पुष्ट, मुख को तेजस्वी और चारित्र को उन्नत बनावें। उनमें इस चिन्तन का प्रादुर्भाव नहीं होता कि वे बिना किसो सौन्दर्य प्रसाधन के सुन्दर
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