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आनन्द प्रवचन : भाग १०
अन्तिम चरण आज पूरा हो रहा है । मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि मैं अब उच्चस्तरीय साधनाओं में प्रवेश करके सिद्धियाँ प्राप्त करूँ, पंचकोशों का अनावरण करके आनन्दमय भूमिका में पहुँचूँ ।"
जीवन के पारखी महर्षि शिष्य की निष्ठा से प्रसन्न तो हुए, मगर भीतरी दृढ़ता को टटोले बिना आगे की साधना की स्वीकृति नहीं दी । अभी उन्हें शिखिध्वज की अग्निदीक्षा के उपयुक्त पात्रता की परीक्षा करनी थी ।
अतः महान तपस्वी, अनेक सिद्धियों के भण्डार महर्षि ने गायत्री - प्रदत्त पारसमणि चुपचाप निकाली और एक अन्य विद्यार्थी को भेजकर थोड़ा-सा लोहा मँगाया । वह कई लौह-शलाकाएं लेकर उपस्थित हुआ । महर्षि ने उन लोहशलाकाओं से ज्यों ही पारसमणि का स्पर्श कराया, त्यों ही वे सब सोने की बन गयीं । शिखिध्वज गुरु का चमत्कार देखकर आश्चर्यचकित हो गया । उसके मन में जड़ द्रव्य के सम्पर्क से सुख प्राप्ति का दुविचार उठा - ' अहा ! धन से ही तो धर्म होता है, धर्म से पुण्य और पुण्य मुक्ति ! मुक्ति-मार्ग मिल गया मुझे । बस, यह पारसमणि मिलते ही मैं मुक्तिपथ पा लूंगा ।'
एक वर्ष की साधना के द्वारा निर्मल किया हुआ मन एक ही क्षण में लोभ - पारसमणि के लोभ की कीचड़ में डूब गया । चढ़ने में परिश्रम और समय दोनों लगाने पड़ते हैं, लेकिन फिसलने में कितनी देर लगती है !
महर्षि शिखिध्वज की मनोवृत्ति को भांप गए, वे सोचने लगे - जो व्यक्ति इतनी कमजोर निष्ठा वाला है, वह अग्निदीक्षा का अधिकारी कैसे हो सकता है ? यह तो धन की बात थी, अभी तो सौन्दर्य, यश, स्वर, भौतिक सुख-सुविधा आदि के कितने ही आकर्षण हैं । इस एक (धन) के आकर्षण से ही मुक्त न हो सका, वह ब्रह्मदीक्षा तक पहुंचने की कठिनाई कैसे झेल सकेगा ? सर्वशक्तिमान ब्रह्म और उसका अन्यतम ऐश्वर्य प्राप्त करने की कठिनाइयों और आग्नेय परीक्षाओं का अनुमान ही वह कैसे कर सकता है ? आत्म-प्राप्ति का परम पुरुषार्थ तो बहुत चढ़ाई का रास्ता है । उसमें समस्त इच्छाओं, अहंकार आदि वामनाओं को नष्ट करना पड़ता है । किन्तु शिखिध्वज तो पहले ही चरण में ढेर हो गया ।
महर्षि उद्दालक कुछ कहें, उससे पहले ही उसने अपना मन्तव्य बतलाते हुए कहा - "गुरुदेव ! आप सचमुच भगवान हैं, सर्वसमर्थ हैं । कितना अच्छा हो, आप यह पारसमणि मुझे दे दें। इससे प्राप्त स्वर्ण राशि का उपयोग मैं समाजहित में, यज्ञकार्यों में करूँगा और इस तरह संसार से मुक्त हो जाऊँगा ।"
गुरु अपने शिष्य शिखिध्वज के बचकानेपन पर मुस्कराये, कुछ गम्भीर होकर उन्होंने कहा - " वत्स ! पारसमणि को लेकर यदि तुम सांसारिक आकर्षणों में फँस कर अपना पतन कर लो, पापपंक में डूबकर धर्म- मर्यादाओं को कलंकित कर डालो, तो क्या पता ? इसलिए पहले तुम्हें इस सत्यता को सिद्ध करना होगा कि धर्म और
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