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आनन्द प्रवचन : भाग १०
अपनाता है, जिसके पीछे अपने धन, धर्म, स्वास्थ्य, शक्ति और समय को बर्बाद कर देता है । जिसमें स्वाभाविक सौन्दर्य की परख नहीं है, केवल गोरी चमड़ी या अमुक फैशन या वेश-भूषा तथा साज-सज्जा को ही सौन्दर्य मानता है, वह नकली सौन्दर्य का पुजारी होता है।
नकली सौन्दर्य का पुजारी स्वाभाविक सौन्दर्य की उपेक्षा करके चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ी होंगी, गाल में खड्डे पड़े होंगे, तथा शरीर भी दुबला-पतला हड्डियों का ढाँचा-सा होगा, तो भी उसे सजाने-संवारने का प्रयत्न करेगा, चेहरे पर क्रीम, स्नो या पाउडर पोत लेगा, ओठ पर लिपिस्टिक लगा लेगा। अमुक तरह से बालों को बढ़ाकर संवार लेगा। इन कृत्रिम सौन्दर्य प्रसाधनों से पुरुष अपना असौन्दर्य ढकने का प्रयास करेगा। वेश-भूषा भी उसकी तड़क-भड़क वाली होगी। पुराने जमाने में लोग सीधी-सादी पोशाक पहनते थे। उन्हें ठीप-टाप, फैशन या आडम्बर पसन्द न था। ये सब कृत्रिमताएँ राजा-महाराजाओं या भोगी-विलासी लोगों में ही पाई जाती थीं, परन्तु आज तो प्रायः आम फैशन हो गया है, कृत्रिम ढंग से सुन्दर दिखने के लिए सूती कपड़ों को छोड़कर रेशम को भी मात करने वाले नायलोन, टेरिलिन या टेरीकोट आदि के वस्त्र पहनने का, जिनसे न तो वस्त्र पहनने का प्रयोजन ही सिद्ध होता है और न वे स्वास्थ्य के लिए लाभदायक हैं। उनमें छिद्र न होने से रोमकूपों को मुश्किल से हवा मिल पाती है।
टोपी या पगड़ी की जगह आज मैदान साफ मिलेगा। उस पर घास की तरह बाल सजाए-संवारे हुए होंगे। धोती की जगह पैंट ने ले ली है। गहने तो इस महँगाई के जमाने में मर्दो के शरीर पर बहुत ही कम मिलेंगे, गहने के बदले कलाई पर घड़ी, जेब में फाउण्टेन पेन, आँखों पर चश्मा, कपड़ों पर सेंट, कान में इत्र का फोहा, आदि मिलेंगे। परन्तु मर्दो की अपेक्षा स्त्रियाँ सौन्दर्य की पूजा में बहुत आगे हैं । आज तो कुलीन घर की बहू-बेटियाँ भी वारांगनाओं या सिनेमा की तारिकाओं से भी कृत्रिम सौन्दर्य-प्रसाधन में बाजी मारने लगी हैं । क्रीम, स्नो, पाउडर, लिपिस्टिक, अमुक ढंग से केश विन्यास, जूड़ा बांधना, आदि महिलाओं में आम फैशन हो गया। कहीं देखा-देखी भी सौन्दर्य प्रदर्शन होता है। गहने और भड़कीले कपड़े, नाइलोन की साड़ियाँ आदि भी अपने आपको सुन्दर बनाने के लिए पहनी जाती हैं।
और देशों की बात जाने दीजिए, ऋषि-मुनियों के देश भारतवर्ष में ही अगर आज हिसाब लगाकर देखा जाए तो इस कृत्रिम सौन्दर्य प्रसाधन और कृत्रिम सौन्दर्य के प्रदर्शन के पीछे प्रतिमास करोड़ों रुपये खर्च होते हैं, साथ ही अपना कीमती समय जो आत्मसाधना, जनसेवा या आजीविकोपार्जन में लगाया जा सकता था, उसे शरीर की साज-सज्जा, वेश-भूषा, शृंगार प्रसाधन और शरीर को कृत्रिम ढंग से सजानेसँवारने में खर्च किया जाता है। इतनी वैचारिक एवं आचारिक शक्ति, यदि आत्म-चिन्तन, आत्मविकास में लगाई जाती तो कुछ लाभ भी होता, पर वह शक्ति शरीर को सजाने-संवारने, सुन्दर दिखाने के चिन्तन में और शरीर के कृत्रिम सौन्दर्य
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