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२७२ आनन्द प्रवचन : भाग १० संवेदना के लिए आभार, किन्तु भाईजी ! मुझे पद, प्रतिष्ठा और यश की कामना कम, मनुष्य-जीवन के सदुपयोग और सार्थक करने की चिन्ता अधिक है। मैं अपने जीवन को विलासिता में डालकर बिगाड़ना नहीं चाहता, किन्तु गुरुसान्निध्य में रह कर उसे सुधारना और सुसंस्कृत करना, उसका नवसर्जन करना चाहता हूं।"
फलतः पण्डित ब्रह्मदत्तजी ने वैदिक युग के गुरुकुलीय विद्यार्थी की तरह अपना जीवनक्रम प्रारम्भ किया और निष्ठापूर्वक विद्याध्ययन भी किया। यही कारण है कि पण्डितजी का जीवन बच्चों की तरह सरल, निश्छल और निरभिमान बना । उनमें पांडित्य का दर्प नहीं था, न अपनी पद-प्रतिष्ठा के लिए भारतीय संस्कृति से ओतप्रोत सादी वेशभूषा छोड़ने का स्वार्थ था। वे इतने दृढ़वती थे कि १५ अगस्त १९६२ को जब उन्हें 'राष्ट्रीय सम्मानित पण्डित' की उपाधि मिली, तब राष्ट्रपति भवन से सम्मान करने की शासकीय सूचना आई कि अमुक तारीख को काला कोट और पायजामा पहन कर राष्ट्रपति भवन में आना चाहिए।
इस पर उन्होंने उत्तर दिया-"मैं जिस वेशभूषा में रहता हूँ, उसी में आऊँगा । यदि इसमें कुछ आपत्ति हो तो मैं बेशक यह सम्मान छोड़ने के लिए तैयार हैं।" उसके बाद वे राष्ट्रपति भवन तभी गए, जब उन्हें अपनी ही भारतीय वेशभूषा में आने की स्वीकृति दे दी गई।
पण्डितजी के हृदय में मानव-मानव में कोई भेद-भाव नहीं था। घर में आए हुए साधारण चपरासी की भी वे वैसी ही आवभगत करते थे, जैसी कि एक संभ्रान्त व्यक्ति की । जन्म से कोई भी अछूत हो जाता है, इस भूल भरी मान्यता से पण्डित जी कोसों दूर थे।
पण्डित ब्रह्मदत्तजी में ये सद्गुण, ये सुसंस्कार कहाँ से आए थे ? अपने गुरु के सान्निध्य से, सेवा-सुश्रूषा और श्रद्धाभक्ति से ही। सच्चा गुरु शिष्य को पथभ्रष्ट होते रोकता है, कब और कैसे ?
सच्चा गुरु अपने सुविनीत और श्रद्धाभक्ति से ओतप्रोत शिष्य को जब सुखसुविधा, स्वार्थ और वासना की झाड़ियों में फंसते देखता है तो उसका हृदय उसे पथभ्रष्ट होने से रोकने के लिए छटपटाता है । वह शीघ्र ही किसी न किसी उपाय से शिष्य की आँखे (ज्ञाननेत्र) खोल देता है, ताकि वह स्वयं उत्पथ और सुपथ का ज्ञानविवेक कर सके और उत्पथ को छोड़कर सुपथ को ग्रहण कर सके। परन्तु यह तभी हो सकता है, जब गुरु के प्रति शिष्य की श्रद्धाभक्ति, विनय-बहुमान और सेवा-शुश्रूषा की भावना हो । शिष्य में आई हुई लोभवृत्ति को गुरु किस कौशल से दूर करते हैं, और उसे हेय-उपादेय का ज्ञान प्रत्यक्षवत् करा देते हैं, इसके सम्बन्ध में एक प्राचीन वैदिक युग का उदाहरण लीजिए
महर्षि उद्दालक के आश्रम में शिखिध्वज उच्च साधना करने आया था । उसकी कुछ योग्यताओं की जांच करके गुरु उद्दालक ऋषि ने उसे मन्त्रदीक्षा देते हुए
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