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चारित्र की शोभा : ज्ञान और सुध्यान-२
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अनगार धर्मामृत में बताया है— इष्टानिष्ट बुद्धि के मूल मोहादि का उच्छेद हो जाने से चित्त स्थिर हो जाता है । उस चित्त की स्थिरता से रत्नत्रय रूप ध्यान होता है | उससे समस्त कर्मक्षयरूप मोक्ष होता है, उससे होता है - अनन्त सुख । '
ध्यान की पुरानी परिभाषा भी इसी अर्थ को व्यक्त करती है— "ज्ञानान्तराऽस्पर्शवती ज्ञानसंततिः ध्यानम् ।"
चैतन्य का वह प्रवाह ध्यान है, जो ज्ञानान्तर का स्पर्श न करे । जिसमें निरन्तर स्वद्रव्य का स्पर्श और परद्रव्य का अस्पर्श होता है, उसे ज्ञानसंतति कहते हैं ।
शुद्ध आत्मा का चिन्तन लेकर उसके साथ तादात्म्य स्थापित करना आत्मज्ञान है ।' यह पहले क्षण का ज्ञान है । वही क्रमभंग किये बिना दूसरे तीसरे क्षण में होता रहे तो वह ज्ञान संतति है । दीपशिखा की भाँति चिन्तन प्रवाह का वैसा का वैसा ही होना एकाग्रता है । इसीलिए तत्त्वानुशासन में निश्चयनय की दृष्टि से ध्यान का स्वरूप बताया गया है
स्वात्मानं स्वात्मनि स्वेन ध्यायेत् स्वस्मिन् स्वतो यतः । षट्कारकमयस्तस्माद् ध्यानमात्मैव निश्चयातु ॥
"चूँकि आत्मा अपनी आत्मा को, अपनी आत्मा में, अपनी आत्मा के द्वारा, अपनी आत्मा के लिए, अपने-अपने आत्महेतु में ध्याता है । इस प्रकार षट्कारकरूप परिणत आत्मा ही निश्चयदृष्टि से ध्यानस्वरूप है ।"
इसीलिए तत्त्वानुशासन में ध्यान के दो रूप बताये गये हैं - एक निश्चयदृष्टि से, दूसरा व्यवहारदृष्टि से । प्रथम में स्वरूप का आलम्बन है, दूसरे में परवस्तु का आलम्बन है ।
चित्त की एकाग्रता भंग होने से सुध्यान टिकता नहीं
ध्यान-साधक में सर्वप्रथम चित्त की एकाग्रता अनिवार्य है । एकाग्रता होने में तीन बड़ी-बड़ी बाधाएँ हैं—स्मृति, कल्पना और वर्तमान की घटना । अतीत की जो घटनाएँ घट चुकी हैं, वे निमित्त पाकर उभर उठती हैं । यथा - ग्रीष्म ऋतु आते ही पहले ग्रीष्म की घटना उभर आती है, यह कालिक स्मृति है, और किसी गाँव को
१ इष्टानिष्टार्थमूलमोहादिच्छेदाच्चेतः स्थिरं ततः । ध्यानं रत्नत्रयं तस्मान्मोक्षस्ततः सुखम् ॥
यत्पुनर्ज्ञानमेकत्र नैरन्तर्येण कुत्रचित् । अस्ति तद्ध्यानमत्रापि क्रमो नाप्यक्रमोऽर्थतः ॥
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- अनगार धर्मामृत १ / ११४
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- पंचाध्यायी
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