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आनन्द प्रवचन : भाग १०
आता, उसे उनका शिष्य पुष्यमित्र बाहर ही रोककर कहता-"आप लोग यहीं से आचार्यश्री की वन्दनादि कर लें। वे अभी महत्वपूर्ण कार्य में व्यस्त हैं।" वे ऐसा ही करते।
____ काफी दिन हो जाने पर एक दिन साधु परस्पर कानाफूसी करने लगे"इतने दिन हो गये ! आचार्यश्री अन्दर क्या करते होंगे ? चलकर देखना चाहिए।"
एक साधु ने चुपके से अन्दर जाकर देखा तो आचार्यश्री जरा भी हलनचलन नहीं करते, न बोलते हैं । अतः उस सुध्यान से अनभिज्ञ साधु ने सारी घटना साधुओं से आकर कही।
उन सबने रूठकर पुष्यमित्र मुनि से कहा-'आचार्यश्री का तो देहान्त हो गया है, यह जानते हुए भी आपने हमें क्यों नहीं कहा ?" उसने श्रुतज्ञान के आधार से कहा-"आचार्यश्री का देहान्त नहीं हुआ, वे निश्चल होकर सूक्ष्मध्यान-साधना कर रहे हैं । तुम सब जाकर उनके ध्यान में विक्षेप न करो।" परन्तु वे ज्ञान-ध्यानरहित साधु क्यों मानने लगे ? वे पुष्पमित्र मुनि के साथ क्लेश करते हुए कहने लगे"तुम धूर्त हो, हमें बनाते हो। हम तुम्हारी बातों में नहीं आने वाले हैं, आचार्यश्री तो बहुत गुणवान थे, तुमने बहकाकर उन्हें वैताल साधना कराई है। उसमें उनकी यह दुर्दशा हुई है ।" वे अज्ञानी साधु राजा को बुला लाए और कमरे में ले जाकर दिखाया-"देखिये, राजन् ! आचार्यश्री के शरीर में अब चेतना नहीं है । हमें साधुमर्यादानुसार इनके मृत शरीर का परिष्ठापन कर देना चाहिए, पर यह पुष्यमित्र ऐसा नहीं करने देता, आप हमें न्याय दीजिए।"
राजा ने भी अत्यन्त निकट जाकर बारीकी से आचार्य को देखा, और निश्चय किया कि आचार्यश्री दिवंगत हो गये हैं । पुष्यमित्र मुनि की बात न मानकर राजा ने शिविका बनवाई । पुष्यमित्र ने बाजी बिगड़ती देख आचार्यश्री के पूर्व संकेतानुसार उनके अंगूठे का स्पर्श किया। संकेत का स्मरण आते ही आचार्यश्री सहसा जागृत होकर बोले- "मेरे सुध्यान में तुमने विक्षेप क्यों किया ?" इस पर पुष्यमित्र ने कहा-"गुरुदेव ! मैंने विक्षेप नहीं किया, आपके अनाड़ी शिष्यों ने किया है।" सारी घटना सुनी तो आचार्यश्री ने सबको बुलाकर उपालम्भ दिया कि मेरी सुसाधना में विक्षेप डालकर तुम लोगों ने ठीक नहीं किया। अब मुझे पुनः नये सिरे से इसकी साधना करनी पड़ेगी।
आचार्यश्री को यह अनुभव हो गया कि जो साधक सम्यग्ज्ञानी नहीं होते वे सुध्यान की बात को नहीं समझते और सुध्यान की बात को न समझने के कारण अपने चारित्र को विशुद्ध रूप से पालन करने के लिए पुरुषार्थ नहीं करते । फलतः उनका स्वयं का चारित्र उज्ज्वल नहीं होता, और जो सम्यग्ज्ञान और सुध्यान को साथ लेकर चारित्र में पुरुषार्थ करते हैं, उन्हें वे या तो करने ही नहीं देते या करते हैं तो विक्षेप डालते हैं।
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