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आनन्द प्रवचन : भाग १०
यन्त्रणाओं से मुक्ति और शान्ति पाने के लिए वे ध्यान को ही उत्तम साधन मानते हैं । इन्द्रियों के विषयभोगों की अति से हुई थकान, मानसिक तनाव और रोजमर्रा के जीवन की आपाधापी से बचने का सर्वोत्कृष्ट उपाय वे ध्यान को मानते हैं ।
चीन में एक ध्यान सम्प्रदाय प्रचलित हुआ, जिसकी कई शाखाएँ बाद में विकसित हुईं। ध्यान के सम्बन्ध में उन्होंने बहुत से अन्वेषण किये । वहाँ से ध्यान का यह तत्त्व जापान में गया । 'येन साइको' नामक एक पुस्तक में ध्यान का वर्णन करते हुए उसे राष्ट्रसुरक्षा और वीरता प्राप्ति से जोड़ दिया है । मनोबल, अन्तर्निरीक्षण, अनुशासन एवं दायित्व बोध के लिए वहाँ ध्यानाभ्यास आवश्यक माना जाता है, खासतौर से जापानी सिपाहियों में इसका व्यापक प्रसार है । जापान की स्वावलम्बिता और औद्योगिक प्रगति का श्रेय ध्यानाभ्यास को दिया जाता है । जो भी हो, आज सुध्यान विविधरूपों में देश-विदेश में प्रचलित है । जनता इसकी महत्ता को समझने लगी है ।
ध्यान का स्वरूप : विविध लक्षणों में
ध्यान-विज्ञाताओं ने ध्यान की अनेक परिभाषाएँ की हैं। वैसे मूल स्वर सबका एक ही है कि किसी विषय में चित्त को एकाग्र करना ध्यान' है । इसी मूल भित्ति पर ध्यान की परिभाषाओं में सर्वत्र परिष्कार किया गया है । तत्त्वार्थसूत्रकार ने ध्यान की परिभाषा की है -
" उत्तम संहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् ।”
"उत्तम संहनन वाले का एकाग्र चिन्तन एवं मन-वचन काया की प्रवृत्तिरूप योगों का निरोध करना ध्यान है । "
इसी का स्पष्टार्थ सर्वार्थसिद्धि में किया है—
"चित्तविक्षेपत्यागो ध्यानम् ।"
"चित्त के विक्षेप का त्याग करना ध्यान है ।"
योग दर्शनकार ने भी इसी परिभाषा का अवलम्बन लिया है । "
किसी विषय के प्रति एकतानता - तल्लीनता ध्यान है ।
निष्कर्ष यह है कि शान्त एवं एकाग्र स्थिर चित्त होकर आत्मलीनता या. एकपदार्थलीनता होना ही ध्यान है ।
१ 'चित्तस्सेगग्गया हवइ झाणं' - चित्त की एकाग्रता ध्यान है ।
२ तत्प्रत्त्येकतानता ध्यानम् ।
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- आवश्यक निर्युक्ति १४५६
— योगदर्शन
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