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२५२ आनन्द प्रवचन : भाग १०
आत्मा में लवलीन हो जाता है । मोक्ष प्राप्ति के लिए ध्यान ही एक मात्र अकसीर उपाय है । द्रव्य संग्रह (४७) में सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्र ने इसी बात का समर्थन किया है
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दुविहं पि मोक्खहेडं झाणं पाउणदिजं मुणी नियमा । तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समभसह ॥
मुक्ति का उपाय रत्नत्रय है, और यह रत्नत्रय (मोक्ष हेतु) दो प्रकार का हैनिश्चय और व्यवहार की अपेक्षा से । दोनों प्रकार का यह उपलभ्य है | अतः समग्र प्रयत्नपूर्वक दत्तचित्त होकर मुनि सम्यक् अभ्यास करना चाहिए ।
आचार्य रामसेन भी तत्त्वानुशासन में मुमुक्षु को सुध्यान की ही प्रेरणा करते हैं कि "हे योगिन् ! यदि तू संसार - बन्धन से छूटना चाहता है तो सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय को ग्रहण करके बन्ध के कारण मिथ्यादर्शनादि के त्यागपूर्वक सतत् सद्ध्यान का अभ्यास कर | ध्यान के अभ्यास की प्रकर्षता से मोह का नाश करने वाला चरम - शरीरी साधक (योगी) उसी पर्याय में मुक्ति प्राप्त करता है, और जो चरमशरीरी नहीं हैं, वे उत्तम देवादि पर्याय को प्राप्त करके क्रमशः मुक्ति पाते हैं ।""
रत्नत्रय सुध्यान से ही को निरन्तर ध्यान का
निःसन्देह ध्यान ऐसा ही उत्तम पदार्थ है, जो इहलोक और परलोक के लिए भी उत्तम पाथेय है; उपयोगी है, सुख, यश और स्वास्थ्य का प्रदाता है, अनेक सिद्धियाँ, लब्धियाँ, उपलब्धियाँ और भौतिक-आध्यात्मिक शक्तियाँ ध्यान से प्राप्त होती हैं । यद्यपि सुध्यान-साधक इहलौकिक भौतिक सिद्धियों के चक्कर में नहीं पड़ता, तथापि ये उपलब्धियाँ उसे अनायास ही प्राप्त हो जाती हैं, भले ही वह अपने लिए इनका प्रयोग न करे ।
अतः यह निर्विवाद कहा जा सकता है कि ध्यान के द्वारा साधक मोक्ष को अवश्य प्राप्त कर लेता है, जहाँ अनन्त सुख - शान्ति है, अनन्त ज्ञान, दर्शन और वीर्य है । आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में स्पष्ट बताया है
मोक्षः कर्मक्षयादेव, स चात्मज्ञानतो भवेत् । ध्यानसाध्य मतं तच्च तद् ध्यानं हितमात्मनः ॥
'कर्मों के क्षय से ही मोक्ष होता है, कर्मक्षय आत्मज्ञान से होता है और आत्मज्ञान ध्यान से प्राप्त होता है । अतः ध्यान आत्मा के लिए हितकारी माना गया है ।'
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ध्याता जब ध्यान के द्वारा अपने से भिन्न अन्य पदार्थ का अवलम्बन लेकर उसे अपनी श्रद्धा का विषय बनाता है तब वह व्यवहारमोक्षमार्गी होता है, और जब वह केवल अपनी आत्मा का अवलम्बन लेकर उसे अपनी श्रद्धा का विषय बनाता
१ तत्त्वानुशासन २२३-२२४ ।
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