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चारित्र की शोभा : ज्ञान और सुध्यान-२
जैसा कि पाश्चात्य विद्वान 'इजाक टेलर' कहता है
“A man of meditation is happy, not for an hour or a day, but quite round the circle of all his years."
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ध्यान करने वाला साधक सुखी रहता है, केवल एक घण्टे या एक दिन के लिए नहीं, अपितु अपनी जिंदगी के तमाम वर्षों के चक्र में सुखसम्पन्न रहता है ।
ध्यान से मन में उत्साह बढ़ता है, चित्त में साहस का संचार होता है, उत्साह और साहस से सोचा हुआ शुभकार्य पूर्ण होता है, चारित्र का सच्चे माने में पालन होता है । जीवन की सभी साधनाओं का केन्द्रबिन्दु ध्यान ही है। चाहे किसी भी प्रणाली का साधक क्यों न हो उसे ध्यान -बल से उस कार्य में अपनी समग्र मनःशक्ति केन्द्रित करनी पड़ती है । एक पाश्चात्य विचारक फेल्दम ( Feltham) ने ध्यान को प्रभु के निकट पहुँचने का उपाय बताया है
“Meditation is the soul's perspective glass, whereby, in her long removes, the discerneth god, as if he were nearer at hand.”
'ध्यान आत्मा को देखने का एक दर्पण है जिसके माध्यम से दीर्घकालिक अभ्यास के बाद वह ( आत्मा ) परमात्मा को यथार्थ रूप में देखने लगती है, मानो वह अत्यन्त निकटवर्ती हो ।'
वास्तव में ध्यान-साधना में साधक ज्यों-ज्यों अग्रसर होता जाता है, त्यों-त्यों उसका मनोबल बढ़ता जाता है । काम, क्रोध, मद, मोह, मत्सर आदि हटते जाते हैं, राग-द्वेष घटते जाते हैं, पारिवारिक जीवन के मोह सम्बन्ध - - मोह-बन्धन करीबकरीब छूटते जाते हैं । ध्यान बल से साधक निःस्पृह और निःस्वार्थी बन जाता है । उसकी राग, मोह, लोभ और आसक्ति आदि की वृत्तियां काफूर हो जाती हैं । वहाँ उसे आत्मा की आवाज पुकार-पुकार कर कहती है- दृढ़ बनो, आत्मबल बढ़ाओ, विकल्पों की वृद्धि न करो, इन्द्रिय-विषयों और मनोविकारों के गुलाम न बनो । इस ध्वनि से उसके अन्तर् में एक आलोक का उद्भव होता है, जिसमें वह कल्मषात्मक अनिष्ट वृत्ति प्रवृत्तियाँ का अवलोकन करके उन्हें हटाने में सक्षम हो जाता है । इसी लिए पश्चिमी विद्वान जेरेमी टेलर (Jeremy Taylor ) कहता है -
"Meditation is the tongue of soul and the language of our
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spirit...
'ध्यान आत्मा की जबान है और हमारी अन्तरात्मा (चेतना) की भाषा है ।' ध्यानावस्था में साधक का जीवन अहंकार और उन्माद से शून्य हो जाता है, वह अपने आपको असली रूप में देख सकता है। कभी-कभी तो साधक ध्यान में इतना एकाग्र हो जाता है कि उसे अपने तन का कोई खयाल नहीं होता, शारीरिक-मानसिक पीड़ाओं का उस पर कोई प्रभाव नहीं होता । न भूख-प्यास सताती है, न नींद । न उसे का भय रहता है, और न दिन का त्रास । हिंस्र जन्तुओं से भी ध्यानावस्था में साधक को कोई भय नहीं रहता । ध्यान से अन्तर्लीन होकर साधक क्रमशः विराट सत्ता – विशुद्ध
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