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आनन्द प्रवचन : भाग १०
जल गयीं हैं और वे झौंपड़ियों वाले राजाजी से फरियाद करने आये हैं, अभी राजमहल के चौक में खड़े हैं।"
रानीजी-"तो मुझे क्यों बुलाया है, महाराज ने ? उनकी झोंपड़ियाँ बनवा दें या उन्हें हर्जाना दे दें खजाने से।"
चम्पकवती-"आपको शायद उन्हें न्याय देने के लिए बुलाते होंगे।"
रानी-प्रजा के सामने मैं पर्दे में रहने वाली कैसे आ सकूँगी ? राजा होश में तो हैं न ? क्या प्रजा के सामने मेरा फैसला होगा ?"
चम्पकवती ने आकर राजा से कहा तो उन्होंने कहा-"जो अपराध करेगा, उसे फैसले के लिए राजदरबार में उपस्थित होना ही होगा। एक तरफ की बात सुनकर फैसला कैसे होगा? अगर रानी ऐसे नहीं आ सकती हो तो साधारण दासी के वेष में उपस्थित हो।"
चम्पकवती ने महाराजा का आदेश दुहराया, तब बहुत समझाने पर महारानीजी राजा के समक्ष साधारण वेष में उपस्थित हुईं।
महाराजा ने पूछा-रानीजी ! क्या ये लोग जो फरियाद कर रहे हैं, वह सच है ?"
महारानी बोली-“महाराज ! इनका कहना यथार्थ है।" राजा-"तो इसका दण्ड कौन भरेगा ?"
रानी-"क्या मुझे दण्ड भरना होगा ? महाराज ! आप मेरी सुख-सुविधा के लिए हजारों रुपये खर्च कर देते हैं, तो इनकी झोंपड़ियाँ भी अपने खर्च से बनवा दीजिए।"
राजा-"अपराध करो तुम और दण्ड भरे प्रजा, यह कहाँ का न्याय है ? राजकोष अपना नहीं है, यह तो प्रजा के ही पसीने की कमाई से भरा गया है, उस पर प्रजा का अधिकार है । उसमें से दण्ड भरना प्रजा पर और जुल्म करना है । अतः इसका दण्ड तुम्हें ही भरना होगा । न्याय तो सबके लिए समान है। वह राजा या राजपरिवार का भी लिहाज नहीं करता, समझ गईं न ?”
____ महारानी-'मैं समझ गई महाराज ! आप न्यायप्रिय राजा हैं, जो भी दण्ड देंगे, उसे मैं सहर्ष स्वीकार करूँगी।"
राजा ने प्रजाजनों के समक्ष गम्भीर होकर फैसला सुनाया-"रानीजी ! तुम्हारे कारण इन गरीबों की जितनी झोंपड़ियाँ जली हैं, उन्हें अपने हाथ से मेहनतमजदूरी करके कमाये हुए पैसों से बनाओ, तब तक अपना पेट भी उसी कमाई से भरो। जब झोंपड़ियाँ तैयार हो जाएँ, तभी राजमहल में पैर रखना।"
- महाराज के मुँह से यह कठोर न्याय सुनकर प्रजाजनों की आँखों से आँसू बरसने लगे। उन्होंने चिल्लाकर कहा- "अन्नदाता ! हमारा न्याय हो चुका;
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