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आनन्द प्रवचन : भाग १०
निष्कर्ष है कि चारित्रधर्म पूर्ण तभी होता है, जब अध्ययन द्वारा उसका सम्यग् ज्ञान होता है, फिर उसका ध्यान (चिन्तन, मनन, अनुप्रेक्षण) होता है। बिना ज्ञान और ध्यान के चारित्रधर्म सुदृढ़, पूर्ण, सफल, बद्धमूल संस्कारबद्ध एवं कृतकार्य नहीं होता।
कामविजेता मुनि स्थूलभद्र कोशा वेश्या के यहाँ शृंगारपूर्ण कामोत्तेजक वातावरण में रहकर भी अपने चारित्र (ब्रह्मचर्य) में दृढ़ रह सके, जरा भी न चूके, उसका क्या कारण था ? यही था कि उनके चारित्र के साथ सम्यग्ज्ञान (ब्रह्मचर्यअब्रह्मचर्य के वस्तुतत्त्व का ज्ञान) एवं सम्यग्ध्यान (उस पर चिन्तन, मनन, अनुप्रेक्षण एवं उत्साहपूर्वक अभ्यास के लिए प्रेरणा) था। यदि सुज्ञान और सुध्यान न होते तो चारित्र लिये हुए स्थूलभद्र मुनि कभी के फिसल गये होते । उनकी स्खलना को रोकने में न उसका वेष काम आता और न ही क्रियाकाण्ड ? इसका स्पष्ट प्रमाण है-मुनि स्थूलभद्र के गुरुभ्राता मुनि (जो कि ईर्ष्यावश कोशा वेश्या के यहाँ चातुर्मास बिताने आये थे) का चारित्र से स्खलित होना । वे भी स्थूलभद्र मुनि की तरह चारित्र अंगीकार किये हुए थे, वेशभूषा भी साधु की थी और साधु के क्रियाकाण्ड भी वे करते थे। किन्तु उनके चारित्र के साथ सम्यग्ज्ञान और परिपक्व ध्यान नहीं थे। परिपक्व ज्ञान और सुध्यान के अभाव में वे चारित्र को पचा नहीं सके थे । उन्हें अपने चारित्र काअपने ब्रह्मचर्य-साधना का गर्व था किन्तु कोशा वेश्या के यहां आते ही जब उसके यहां शृंगार एवं भोग-विलासपूर्ण कामोत्तेजक वातावरण देखा तो अपने चारित्र से एकदम विचलित हो गये, ब्रह्मचर्य-साधना से फिसल गये और रूपराशि कोशा से प्रणय-याचना करने लगे । कोशा अब वेश्या नहीं थी, वह कामविजेता स्थूलभद्र मुनि के सदुपदेश से तथा उनके त्याग-वैराग्यपूर्ण आचरण से प्रभावित होकर श्राविका बन गई थी। अतः उसने चारित्र-स्खलित मुनि को चारित्र में स्थिर करने हेतु कहा-"मेरे लिए नेपाल से रत्नकम्बल ले आएँ, तभी मैं आपकी अनुचरी बन सकती हूँ।" मुनि अपने साधुवेष का तथा साधुमर्यादाओं का परित्याग करके नेपाल गए । वहाँ के राजा से याचना करके रत्नकम्बल लाये । परन्तु रास्ते में ही लुटेरों ने लूट ली वह कम्बल । अब क्या करें? पुनः वे नेपाल जाकर बाँस की नली में डालकर रत्नकम्बल लाये, और आते ही कोशा को भेंट दे दी।
कोशा ने उक्त मुनि के सामने ही कीचड़ से भरे पैर उस रत्नकम्बल से पोंछकर डाल दी।
मुनि ने कहा-"कोशा ! यह क्या किया ? अत्यन्त मुसीबतें सहकर तो मैं रत्नकम्बल लाया, और तूने इससे कीचड़ पोंछकर फेंक दी।"
कोशा ने बोध का उचित अवसर जानकर कहा-"आप भी अत्यन्त कष्ट सहकर वर्षों से उपार्जित चारित्ररूपी बहुमूल्य वस्त्र को विषय-वासना के कीचड़ में फैकने जा रहे हैं। कुछ तो आपने फेंक दिया, रहा-सहा भी प्रणय-बन्धन में बंधकर फैकने जा रहे हैं । आप सोचिए तो सही कि आप मेरे यहाँ किस उद्देश्य से वातुर्मास बिताने आये थे? वह उद्देश्य एवं साधुमर्यादाएँ सब आपने ताक में रख दीं।"
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