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चारित्र की शोभा : ज्ञान और सुध्यान-१ २३३ इच्छा है कि आप अपना योग छोड़कर सदा के लिए हमारे साथ रहें। हम आपको वचन देते हैं कि बहिश्त की परी-सी सुन्दर स्त्री और मनचाही दौलत हम आपको देंगे। आपको किसी तरह की तकलीफ नहीं होने देंगे। जिंदगी की मौज लूटने में अभी कोई देर नहीं हुई है।"
युवक मुनि विचारने लगे-बादशाह को आज न मालूम आज क्या सूझी है । ऐसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं । मुनि ने मुस्कराते हुए कहा- "इस चारित्रसाधना में तकलीफ की तो कोई बात ही नहीं है । इस साधना में हमें तकलीफ महसूस होती तो इस योग को छोड़कर संसार के सुख-भोग में पड़ने से हमें कौन रोकता था ? किसी ने जबरदस्ती हमें इस योग को लेने के लिए बाध्य नहीं किया। फिर क्या कष्ट है हमें ? हमें तो इसमें आनन्द ही आनन्द है। फिर इस योग का त्याग करके दोनों ओर से भ्रष्ट होने की क्या जरूरत ?"
मित्रो ! बादशाह को जो कठिन लगता था, वह इस युवक मुनि को सरल और सहज लगता था। क्योंकि ज्ञान और सुध्यान के संयोग से चारित्र उनके रोमरोम में रम गया था। परन्तु पकड़ी हुई बात को छोड़ने की आदत जहाँगीर में थी नहीं, इसलिए आदेश की भाषा में रोब से उसने कहा-"आपकी बात हमारी समझ में नहीं आती। आपको हमारी बात माननी ही पड़ेगी।"
सिद्धिचन्द्र मुनि अपनी बात पर दृढ़ थे। चारित्र के बद्धमूल संस्कारों को छोड़ना उनके लिए कतई सम्भव न था। अतः उन्होंने उतना ही कहा- "आपकी बात मानी जा सकने योग्य नहीं है। अगर आपको इस समय कोई योगी बनने को कहे तो क्या आप बन सकेंगे ? वही बात मेरे लिए है कि मैं भोगी नहीं बन सकता।"
बादशाह के अहं को गहरी चोट पहुंची। सोचा-मेरी बात का ऐसा करारा जबाव ? फिर भी वह गम खाकर रह गया। कहा--"अच्छा-अच्छा ! आप हमारी बात पर ठण्डे दिल से विचार करना । इसका फैसला हम कल करेंगे।"
___ मुनि विदा हुए, मानो उनका मन कह रहा था-कल की बात कल ! न जाने कल तक कितने परिवर्तन हो जाएँगे। योगी अपनी दृष्टि से सोच रहे थे, भोगी सम्राट् अपनी दृष्टि से । दोनों ही अपने मन की बाप्त कल सच्ची सिद्ध करने के लिए अपने को तैयार कर रहे थे। दूसरे दिन जब मुनि मिले, तब बादशाह ने पूछा"कहिए योगिराज ! कल वाली मेरी बात पर आपने क्या सोचा ?" बादशाह के सत्ता के नशे को चूर करते हुए मुनि ने कहा- "मेरा तो एक ही जवाब है, वही जो मैंने कल दिया था। अच्छा होगा, आप अपनी बात वापिस ले लें।"
बादशाह उत्तेजित होकर बोला- "आप एक बादशाह की बात मानने से इन्कार करते हैं।"
मुनि ने शान्ति से कहा- "इसमें आपकी बात से इन्कार का सवाल नहीं, सवाल तो अपने मन की बात के स्वीकार का है।"
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