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चारित्र को शोभा : ज्ञान और सुध्यान-२ २४१ एवं शर्त तय हो जाने पर उस गाँव के पण्डित ने वही प्रश्न प्रस्तुत किया-तुम्बक तुम्बक तुम्बा है जी।
आगन्तुक पण्डित ने उसके मुंह पर दो चाँटे जमाकर कहा-"मूर्ख कितने पाठ खा गया ? आया है पण्डित बनकर शास्त्रार्थ करने !" ग्रामीण जनों ने आगन्तुक को जोरदार पण्डित समझकर पूछा-"महाराज ! कौन-से पाठ भूल गये हमारे पण्डितजी ?"
आगन्तुक पण्डित ने कहा-"सुनिये, पहले 'तुम्बक तुम्बक तुम्बा' कहाँ से होगा ? पहले 'खेतस-खेतस खेता है जी, खेतस-खेतस खेता है', होगा। फिर 'मेहसमेहस मेहा है जी, मेहस-मेहस मेहा है', होगा। तब 'बाहत-बाहत बाहा है जी, बाहत-बाहत बाहा है', होगा। इसके बाद 'उगत-उगत उगा है जी उगत-उगत उगा है' होगा । फिर होगा-'नालस-नालस नाला है जी, नालस-नालस नाला है। इसके बाद होगा-'तुम्बक-तुम्बक तुम्बा है जी, तुम्बक-तुम्बक तुम्बा है ।" यों कहते हुए ग्रामीण पण्डित के मुंह पर दो चाँटे जड़ दिये । सभी ग्रामीणों ने नवागन्तुक पण्डित की जय बुला दी । कहने लगे-"अरे ! खेत, मेह, बुवाई आदि के बिना तुम्बा कहाँ से हो जाएगा? सचमुच हमारा पण्डित ये पाठ खा गया ।"
___ ग्रामीण पण्डित के यहाँ से घोड़ी, सारी पुस्तकें और कीमती सामान लेकर नवागन्तुक पण्डित झटपट वहां से चल दिया। गांव पहुंचकर सारी शास्त्रार्थलीला अपने विद्वान एवं सदाचारी पुत्र को सुनाई। वह मुस्कराकर कहने लगा"वास्तव में मेरे ज्ञान के साथ ध्यान नहीं था, इसलिए मैंने शास्त्रार्थ में मुंह की खाई।"
तात्पर्य यह है कि साधक के जीवन में चारित्र के साथ ज्ञान तो हो, पर सुध्यान न हो तो उसके चारित्र में स्फूर्ति और जान नहीं आती, उसका चारित्र तेजस्वी, प्रभावशाली एवं आकर्षक नहीं बनता, उसके चारित्र में ज्ञान के साथ सुध्यान के न होने से सावधानी, जागृति और अप्रमत्तता नहीं रहती, फलतः चारित्र में कई दोष एवं अशुद्धियां प्रविष्ट हो जाती हैं ।
ज्ञान के साथ सुध्यान के होने पर ही साधक में आत्मजागति आ सकती है। चारित्र के किस अंग का कब और कैसे पालन करना है ? चारित्र के उस अंग का पालन करने में कौन-कौन से खतरे उपस्थित हो सकते हैं ? चारित्र के किस अंग का पालन करने में अभी मुझे जोर लगाना चाहिए ? क्या अमुक प्रथा, क्रिया, परम्परा वास्तव में चारित्र-पालन के लिए सहायक है, चारित्र की सुरक्षक है, चारित्र को उज्ज्वल बनाने वाली है या सुशोभित करने वाली है, या केवल रूढ़िगत है, विकास घातक है या हानिकारक है ? इत्यादि विशिष्ट बातों का ज्ञान पोथियों या शास्त्रों से नहीं हो सकता, यह तो सम्यक् ध्यान से ही हो सकता है । इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्ष-पाहुड (गा० २३-१००) में कहा है कि
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