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चारित्र की शोभा : ज्ञान और सुध्यान-१ २२६ चारित्रभ्रष्ट मुनि कोशा की मर्मस्पर्शी वाणी सुनकर एकदम उबुद्ध हो गये। उन्हें अपने अयुक्त आचरण तथा चारित्रभ्रष्टता से ग्लानि और पश्चात्ताप होने लगा। कोशा से क्षमा माँगकर तथा अपनी भूल स्वीकार करके वे सीधे चल पड़े अपने गुरुदेव के पास प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध होने । स्थूलभद्र मुनि से भी ईर्ष्या के लिए क्षमा मांगी।
एक चारित्रवान् मुनि थोड़ा-सा निमित्त मिलते ही सहसा चारित्र से भ्रष्ट क्यों हो गया ? क्यों हो जाता है ? उसका कारण है-चारित्र के साथ परिपक्व सद्ज्ञान और सद्ध्यान नहीं थे । अगर उनके चारित्र के साथ ज्ञान और सुध्यान ओतप्रोत होते तो वे कदापि अपने चारित्र से विचलित न होते, चाहे उनके सामने स्वर्ग की अप्सरा ही क्यों न खड़ी हो जाती।
चारित्र का पौधा बढ़ता है, ज्ञानजल एवं सुध्यानरूपी खाद से कोई भी पौधा तब बढ़ता है या फलता-फूलता है, जब उसे पानी और खाद उचित मात्रा में मिलें । यदि ऐसी जमीन में बीज बोया जाए, जिसमें उर्वरा शक्ति न हो और खाद का अंश न मिला हो तो अच्छा बीज होते हुए भी वह उगेगा नहीं, इसी प्रकार जमीन में खाद आवश्यक मात्रा में डाला जाने पर भी उगे हुए पौधे को पानी न मिले तो भी वह संबंधित नहीं हो सकेगा, मुरझाकर सूख जाएगा। इसी प्रकार चारित्र का पौधा ज्ञानरूपी पानी और सुध्यानरूपी खाद पाकर बढ़ता है। यदि दोनों में से एक की भी कमी रह जाये तो चारित्ररूपी पौधा अन्तरात्मा में संस्कारबद्ध, बद्धमूल और विकसित नहीं हो सकेगा। चारित्ररूपी पौधे को बद्धमूल और विकसित होने के लिए सम्यग्ज्ञानरूपी जल से बार-बार सींचना पड़ेगा, और सुध्यानरूपी खाद देना होगा, उसे शीघ्र संवधित एवं विकसित होने के लिए। जो ऐसा न करके केवल चारित्ररूपी पौधे को बढ़ाना चाहता है, उसका वह पौधा अन्तरात्मा के संस्कारों में बद्धमूल नहीं होता, फलतः बाह्य निमित्त (वैषयिक प्रलोभनों, या अहंता-ममता के कुसंस्कारों का) मिलते ही उसके चारित्र का वह पौधा शीघ्र ही कुम्हलाकर सूख जाता है, चारित्र का वह पौधा धराशायी हो जाता है ।
ज्ञानरूपी जल और सुध्यानरूपी खाद के साथ चारित्ररूपी पौधा कैसे वृद्धिंगत, सुदृढ़, संस्कारों में ओतप्रोत एवं बद्धमूल हो जाता है ? इसके लिए एक ऐतिहासिक उदाहरण लीजिए
युगप्रभावक जगद्गुरु श्री हीरविजयसूरिजी के बाद सम्राट अकबर को धर्मोपदेश सुनाने वालों में उपाध्याय श्री भानुचन्द्रजी और उनके शिष्य श्री सिद्धिचन्द्रजी (ये श्रमणयुगल) थे, जिन्होंने कविवर वाणभट्टरचित कादम्बरी (गद्यमय महाकथा) पर प्राञ्जल टीका लिखी थी। उपाध्याय श्री भानुचन्द्रजी को अकबर बादशाह को धर्मोपदेश देने बार-बार राजदरबार में जाना पड़ता था। उनके धर्मोपदेश से प्रभावित होकर बादशाह ने जीवदया एवं धर्म के अनेक कार्य किये।
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