________________
२१८
आनन्द प्रवचन : भाग १०
बन्धुओ ! समाधियोग का इतना जबर्दस्त प्रभाव है कि इसके कारण प्रशमसाधक के मन में उठने वाले सभी प्रश्न स्वयमेव समाहित हो जाते हैं, आत्मा निद्वन्द्व, निर्विकल्प एवं निर्विकार हो जाती है। परन्तु समाधियोग की यह उत्कृष्ट दशा है । सम्यग्दर्शन के गुणस्थान से प्रारम्भ होकर यह प्रशमनिष्ठा ग्यारहवें गुणस्थान में जाकर परिपक्व होती है।
आप भी प्रशम-साधना प्रारम्भ कीजिये और समाधियोग के द्वारा अपना आत्मविकास उत्तरोत्तर बढ़ाइये और इस पद को प्रतिपल स्मरण कीजिए
'समाहिजोगो पसमस्स सोहा' समाधियोग ही प्रशम की शोभा है, यही उत्तुग प्रशम मन्दिर का स्वर्ण कलश है।
00
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org