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आनन्द प्रवचन : भाग १०
अपने प्राणों को संकट में डालने के लिए तैयार न था। किन्तु नागार्जुन प्राणों का मोह त्यागकर उनका प्रयोग अपने ही शरीर पर करने लगा। अमृत की खोज के लिए ऐसा करना अनिवार्य था। अपनी समस्त शक्तियों और भावनाओं को एक लक्ष्य पर केन्द्रित करके खाने-पीने, सुख-दुःख, विघ्न-बाधाओं की परवाह न करके नागार्जुन एक कठोरव्रती, योगी एवं सच्चे साधक का-सा जीवन व्यतीत कर रहा था। धीरे-धीरे वह अपने कार्य में सफल होने लगा। शरीर को इतना सहनशील बना लिया कि भले-बुरे सभी परीक्षणों के प्रभाव को निःशंक सहन कर सकता था, शस्त्रादि तथा किसी प्रकार के विष आदि का प्रभाव उसके शरीर पर नहीं पड़ सकता था।
युवराज से एक दिन कहा- "बेटा ! अब मैं कुछ ही दिनों में संसार से मृत्युभय को हटाने में सफल हो जाऊँगा । अमर बनाने वाली समस्त औषधियाँ उपलब्ध हो चुकी हैं, सिर्फ उचित मात्रा में विधिपूर्वक उनका योग करना ही शेष रह गया है। भगवान ने चाहा तो दरिद्रता और मृत्यु दोनों के भय से संसार को मुक्त कर सकूँगा।"
परन्तु दुर्भाग्य से नागार्जुन अपनी अमृतविद्या का प्रयोग अधूरा छोड़कर ही इस संसार से चल बसे। किन्तु वे संसार को अपनी रससिद्धियों की बहुत बड़ी देन दे गये हैं। क्या ऐसे उपकारी विद्याधरों का संसार ऋणी नहीं रहेगा?
बन्धुओ ! विद्याधरों पर प्राचीन और नवीन सभी पहलुओं से हमने विचार किया। चाहे वंशपरम्परा से विद्याधर हों या अन्य प्रकार से जो लोकहितैषी बनकर विद्याओं की साधना करते हैं और उनमें सिद्धि प्राप्त करके संसार को दे जाते हैं, वे सदैव मन्त्रपरायण, विद्यासाधना तत्पर रहें, इसमें कोई सन्देह नहीं है, ऐसा जीवन धन्य है, सार्थक है। आपको विद्याधरों के मन्त्र-तत्पर जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए। विद्या एवं मन्त्र : जीवन के तट पर
__ मैंने विद्याधर एवं मन्त्र की जो व्याख्या आपके सामने प्रस्तुत की है। वह प्रायः प्राचीन आचार्यों की शैली के आधार पर की है । अब जरा इन दोनों शब्दों की जीवन-स्पर्शी व्याख्या पर भी चिन्तन कर लें। विद्या एवं मन्त्र का हमारे व्यावहारिक जीवन के साथ क्या सम्बन्ध है और 'विज्जाहरा मंतपरा हवंति' के पीछे महर्षि का अन्य क्या आशय हो सकता है, इस पर भी चर्चा कर लें।
'विद्या' का सामान्य अर्थ है ज्ञान ! शिक्षण ! साधारण अक्षर-ज्ञान से लेकर उच्चतम ज्ञान के लिए-विद्या शब्द का प्रयोग होता है । 'शिशुओं आदि को जहाँ 'अक्षर-ज्ञान' कराया जाता है उन केन्द्रों को भी 'विद्यालय' कहा जाता है। और शरीर विज्ञान, मानस विज्ञान, तन्त्रविज्ञान आदि की उच्चतम शिक्षा के केन्द्र भी 'विद्यालय' नाम से ही सम्बोधित होते हैं ।
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