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१७८ आनन्द प्रवचन : भाग १० आह्लाद उत्पन्न होता है, मन में स्फूर्ति आ जाती है। इसी तरह प्रशम भी विषयकषायों से जनित त्रिविध ताप से तपे हुए मनुष्य की आत्मा के लिए तारों भरी रात के समान शीतल एवं शान्तिदायक है, स्फूर्तिदायक है, आह्लादोत्पादक है ।
पाश्चात्य विचारक कोल्टन (Colton) के शब्दों में कहूँ तो
"Peace is the evening star of the soul, as virtue is its sun, and the two are never far apart.
-शान्ति (प्रशम) आत्मा का सान्ध्यकालीन तारा है, जबकि सद्गुण इसका सूर्य है, और यह दोनों कभी एक दूसरे-से पृथक नहीं होते।
___जैसे सूर्य के चारों ओर ग्रहमण्डल, तारे और नक्षत्र घूमते रहते हैं, सूर्य इन सबका केन्द्र होता है, वैसे ही प्रशम एक ऐसा महत्त्वपूर्ण सान्ध्यकालीन नक्षत्र है, जो सद्गुणसूर्य के चारों ओर घूमता है । तात्पर्य यह है, कि प्रशम सभी सद्गुणों में उत्तम और उपयोगी गुण है। इसके बिना मानव-जीवन का व्यवहार एक दिन भी नहीं चल सकता। तत्त्वामृत में स्पष्ट कहा है
शमो हि न भवेद्येषां ते नरः पशुसन्निभाः।
समृद्धा अपि सच्छास्त्रे कामार्थरतिसंगिनः ॥ -जिन मनुष्यों के जीवन में शम नहीं है, वे सुशास्त्रों के ज्ञान से समद्ध होने पर भी स्वार्थ (अर्थ) और काम में प्रीति और आसक्ति रखने वाले पशुओं के सदृश हैं।
तात्पर्य यह है कि मानव-जीवन की समस्त प्रवृत्तियों का केन्द्र बिन्दु प्रशम है। प्रशम (शान्ति) को लक्ष्य में रखकर मानव समस्त मूल-प्रवृत्तियां करता है, फिर भले ही वे प्रवृत्तियाँ उसकी निकृष्ट वृत्ति के कारण आगे चलकर विपरीत दिशा में चली जाती हों। लोग दूध को गर्म करते हैं, जमाते हैं, बिलौना करते हैं। यह सब किसलिए करते हैं ? मक्खन के लिए । वैसे ही जीवन का सारा प्रयत्न, सारी दौड़धूप प्रशम के लिए है । जहाँ प्रशम नहीं है, वहाँ शान्ति नहीं होती और जहाँ शान्ति नहीं, वहाँ सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? गीता में कहा है
'अशान्तस्य कुतः सुखम्' -जो अशान्त है, उसे सुख कहाँ से हो सकता है ? एक आचार्य का अभिमत है
शमार्थ सर्वशास्त्राणि विहितानि मनीषिभिः ।
स एव सर्वशास्त्रज्ञः, यस्य शान्तं सदा मनः ॥ -मनीषियों ने जितने भी शास्त्र रचे हैं, वे सब प्रशम की उपलब्धि के लिए ही । जिसका मन सदा प्रशान्त रहता है, वही (मेरी दृष्टि में) सर्वशास्त्रज्ञ है।
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