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प्रशम की शोभा : समाधियोग-२ २०७ गुणों या प्रगति को देखकर जो ईर्ष्या, मत्सर, वैर-विरोध की दुर्भावना पैदा होती है, उसे प्रमोद भावना रोकती है, दूसरों को दुःखी, पीड़ित एवं विपन्न देखकर भी जो स्वार्थी के मानस में सहानुभूति, दया, मानवता एवं सहयोग की भावना नहीं उमड़ती, करुणा भावना इस प्रकार की दुर्वृत्ति को रोकती है और विरोधी, विपरीत, विचारधारा वाले एवं दुष्ट-दुर्जन आदि के प्रति सहसा जो द्वेष, वैर, विरोध, संघर्ष कलह आदि की दुर्वृत्ति पैदा होती है, उसे माध्यस्थ्य भावना रोकती है । इस प्रकार मानसिक प्रशम जीवन में आयेगा।
वाचिक प्रशम के लिए मौन का अवलम्बन लेना या वाणी पर संयम रखना आवश्यक है । एक अरबी कहावत है
'मौन के वृक्ष पर शान्ति का फल लगता है।' वास्तव में, मौन करने से बहुत-से झगड़ों-झंझटों से मनुष्य छुटकारा पा लेता है, अथवा वाणी पर संयम रखकर उतना ही बोले, जितना आवश्यक है।
कायिक प्रशम के लिए शरीर से जो भी प्रवृत्ति की जाये, या चेष्टाएँ की जाएं, उनसे किसी प्राणी का अहित, नुकसान या अकल्याण न हो; ऐसे ही कार्य किये जाएं, जिनसे किसी का बुरा न हो, दूसरे का शोषण, दलन या जबरन दमन न हो। अन्यथा जिन कायिक प्रवृत्तियों से दूसरों का अहित, शोषण, जबरन दमन या दलन होगा, वहाँ विपरीत प्रतिक्रियावश अशान्ति पदा होती ही है।
वैसे देखा जाए तो प्रशम (शान्ति) का मूल त्याग में है । गीता में भी बताया गया है
'त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्' "त्याग करने के तुरन्त पश्चात् ही शान्ति (प्रशमता) प्राप्त होती है।"
परन्तु प्रश्न होता है-त्याग किसका किया जाए ? समस्त सांसारिक विषयसुखों का, कामनाओं का, धनादि भौतिक पदार्थों के प्रति आसक्ति या मोह का त्याग ही मुख्यतया करणीय है।
___ एक कुरर पक्षी मांस का टुकड़ा लेकर उड़ा तो कोए, चील आदि उसका पीछा करने लगे। परेशान होकर उसने वह टुकड़ा डाल दिया और शान्ति से एक पेड़ की डाली पर जा बैठा।
दत्तात्रेयजी यह दृश्य देख रहे थे। उन्होंने कुरर को अपना गुरु माना । कुरर की क्रिया से उन्होंने यह प्रेरणा ली कि मांस-त्याग की तरह सांसारिक सुखों के प्रति आसक्ति या धनादि के प्रति मोह का त्याग नहीं किया जाएगा, तब तक शान्ति (प्रशमता) प्राप्त नहीं ही सकेगी, अशान्ति बनी रहेगी।
पाश्चात्य विचारक 'यंग' ने ठीक ही कहा है
"शान्ति (प्रशमता) ठीक वहीं से शुरू होती है, जहां से महत्त्वाकांक्षा का अन्त होता है।"
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