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आनन्द प्रवचन : भाग १०
पूर्वे वयसि यः शान्तः, स शान्त इति मे मतिः।
धातुषु क्षीयमाणेषु, शमः कस्य न जायते ? 'वृद्धावस्था से पूर्व वय में जो शान्त होता है, वही मेरे मत में शान्त (प्रशमयुक्त) है, धातुएँ क्षीण हो जाने पर किसके जीवन में प्रशम नहीं आ जाता ?'
यद्यपि यह कथन अवस्था को लेकर किया गया है, किन्तु वृद्धावस्था आने पर भी, धातु क्षीण हो जाने के बावजूद भी जिनकी प्रकृति उग्र रही है, जिनकी वृत्तियाँ क्लिष्ट रही हैं, उनके जीवन में प्रशम नहीं आ पाता। बाहर से इन्द्रियाँ भले ही शान्त दिखाई देती हों, अशक्त होने के कारण भले ही वे चुपचाप पड़े रहते हों, परन्तु अन्दर क्रोध, चिड़चिड़ाहट, क्षोभ, रोष, द्वष की आग भड़क रही हो तो उन्हें प्रशान्त नहीं कह सकते, न उनकी इन्द्रियों और वाणी की शान्ति को प्रशम कह सकते हैं। अगर इन्द्रियों के निश्चेष्ट हो जाने और वाणी से मौन हो जाने को ही प्रशम कहा जाएगा, तो अशक्त, अपंग या मूक और पागल मनुष्यों के चुपचाप पड़े रहने या आत्मस्वरूप में रमणता से एवं आत्मज्ञान से रहित मिथ्यादृष्टिसम्पन्न व्यक्ति की भी अंगनिःस्पंदता तथा वाणी की निश्चलता को भी प्रशम कहना होगा किन्तु वहाँ प्रशम का अभिनय हो सकता है, आन्तरिक प्रशम नहीं । द्रव्य प्रशम का कोई मूल्य नहीं है जब तक अन्तर् से प्रशम स्पृष्ट न हो। अन्यथा, सुषुप्त चेतनाशील एकेन्द्रिय जीवों की निश्चेष्टतायुक्त शान्ति को भी प्रशम कहना पड़ेगा, जिसे कोई भी धर्मशास्त्र तथा समझदार मनुष्य कहने को तैयार नहीं है। प्रशम-शरीर से या मन से?
इसी प्रकार किसी क्रोधी व्यक्ति का घर में लड़ाई-झगड़ा हो जाने पर या गुमसुम होकर चुपचाप बैठ जाना प्रशम नहीं है। अन्तर् से क्रोधादि कषायों या विषय-लालसा की समझ-बूझकर उपशान्ति न हो जाए, तब तक बाहर से, किसी के दबाव से, सरकारी दण्ड से, या किसी के मारने-पीटने से या आवेश में आकर मौन होकर इन्द्रियों को निश्चेष्ट करके बैठ जाने से प्रशम नहीं आ जाता ; क्योंकि ऐसे व्यक्ति के अन्तर् में रोष, द्वेष, ईर्ष्या, वैर-विरोधवश प्रतिक्रिया चलती रहती है, मन ही मन वह घुटता और दुश्चिन्तन करता रहता है, जिसे हम अतध्यान और रौद्रध्यान कहते हैं। ऐसे व्यक्ति के शान्ति के अभिनय को हम प्रशम नहीं कहते । परन्तु आज के कृत्रिमता के युग में जैसे कल्चर मोती, नकली सोना-चाँदी, नकली केसर, कस्तूरी आदि चल पड़े हैं, वैसे नकली प्रशम भी चल पड़ा है, जिसमें ध्यान, मौन और अंगोपांगों की निःस्पन्दता आदि सभी प्रक्रियाएँ प्रशम (शान्ति) की अपनाई जाती हैं, परन्तु उन नकली प्रशम-साधकों के अन्तर् में काम, क्रोध, मोह, द्वेष, लोभ आदि अशान्ति-उत्पादक वासना की आग जलती रहती है।
कई लोग नकली प्रशम का प्रदर्शन करने के लिए साधु का स्वांग भी धारण कर लेते हैं। साधु वेष में ही वे प्रशम का दिखावा करके दुनिया को चकमे में डाल
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