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प्रशम की शोभा : समाधियोग – १ १९३ है, स्वेच्छा से त्याग करने से है। इसी प्रकार कई लोग यह सोचते हैं कि अपना मनचाहा हो जाए इतने से ही सुख-शान्ति प्राप्त हो जाएगी, पर क्या मनमाना करने से संघर्ष, क्लेश, द्वेष, ईर्ष्या और दुर्भावना नहीं बढ़ेगी ? और मनमानी करने से मन विकृत होगा, विकृत मन अशान्ति के पथ पर ले जाता ही है । इसलिए प्रशम न तो पदार्थों पर आधारित है, न व्यक्तियों पर और न मनचाहा या मनमाना हो जाने में है, वह आन्तरिक शुभ भावनाओं में है, आत्मा में है ।
भक्त तुकाराम के जीवन की एक घटना है— जब उनकी धर्मपत्नी चल बसी, उन पर काफी कर्जदारी हो गई, अर्थ संकट भी आ पड़ा और कुछ लोग उनको शत्रु भी मानने लगे, विरोधी हो गये । फिर भी प्रशमरसनिमग्न भक्त तुकाराम अपनी आत्म- शान्ति से जरा भी विचलित, विक्षुब्ध न हुए, बल्कि उन्होंने भगवान का आभार माना कि संसार की मोहमाया से हटाकर वे अपनी भक्ति में लगाकर मुझे प्रशम राज्य में ले चाना चाहते हैं । सहज ही यह जंजाल मिट गया, यह बहुत अच्छा हुआ ।
सुख-साधनों के अभाव में भी उनमें प्रशमभाव टिका रहा, इसका कारण यह है कि उनका प्रशमभाव आन्तरिक था, बाह्य नहीं ।
जो भीतर से प्रशान्त, स्वच्छ और सन्तुष्ट है, वह बाहर से अशान्त, अस्वच्छ और असन्तुष्ट नहीं हो सकता । जो जिसके मन में होगा, वही उसके कार्यों, शब्दों और व्यवहारों से प्रकट होगा । भीतरी प्रवृत्तियाँ ही सदा नाना रूप धारण करके व्यक्ति के व्यवहारों से सुस्पष्ट होती रहती हैं ।
प्रशम जैसे बाह्य पदार्थों और व्यक्तियों में नहीं मिलता, वैसे ही वह बाह्य स्थानों में भी प्राप्त नहीं होता । कई लोग प्रशम (शान्ति) के लिए जंगलों, पहाड़ों, गुफाओं, तीर्थों और मन्दिरों तथा धर्मस्थानों में जाते हैं, पर अन्तर् में प्रशम हो तो वहाँ प्रशम मिल सकता है, अन्तर् में ही अशान्ति हो तो किसी स्थान - विशेष में जाने से प्रशम कैसे मिल सकता है ? अन्तर् में प्रथम जागृत करने के लिए कई लोग शान्तिपाठ करते हैं । वैदिक शान्तिपाठ इस प्रकार है
'ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिः, पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिवनस्पतयः शान्तिविश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वशान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि ।'
सारांश यह है कि ब्रह्माण्ड में सर्वत्र शान्ति की भावना प्रकट की गई है, साथ ही अपने अन्दर भी शान्तिवृद्धि की कामना की गई है ।
इस प्रकार जैनधर्म के आचार्यों ने भी बृहच्छान्तिपाठ और लघु शान्तिपाठ बताया है, उसमें भी धर्मसंघ से लेकर राज्य, राष्ट्र, पौरजन, राज्याधिप, जनपद, गौष्ठिक, ब्रह्मलोक आदि के लिए शान्ति की भावना की गई है ।
तत्त्वामृत में बताया गया है
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'विशुद्धपरिणामेन शान्तिर्भवति सर्वतः '
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