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आनन्द प्रवचन : भाम १०
गये हैं। मनुष्यों में स्वार्थभावना पराकाष्ठा पर पहुंच गई है। एक के पास साधन अधिक हैं, दूसरा साधनों के अभाव में जी रहा है। इस प्रकार एक व्यक्ति स्वार्थी, निष्ठुर, नीरस और आस्थाहीन बन गया है जबकि दूसरा अभावों से, सहयोग के अभाव में, पीड़ित, पददलित, उत्साहहीन, नीरस एवं सत्त्वहीन बन गया है । इस प्रकार की विषमता में मानवमन प्रशान्त नहीं रह पाता। वह प्रशान्त रह सकता है-समता
और सन्तुलन मे, इच्छाओं और आवश्यकताओं की सीमा करके अनासक्तभावपूर्वक चलने से, अभावपीड़ितों के लिए त्याय एवं ममत्व-विसर्जन करके ।
संसार में जहाँ इच्छाएँ, कामनाएँ एवं आवश्यकताएँ बढ़ती जाती हैं, वहाँ दुःख, शोक, संघर्ष और अशान्ति का होना अवश्यम्भावी है। क्योंकि जहाँ कामनाएं होंगी, वहाँ अतृप्ति और अभाव खटकेगा, फलत: मन में अशान्ति होगी। मन अशान्त रहने पर तरह-तरह की बाधाओं एवं व्यामोहों का जन्म होगा, चिन्ताएँ बढ़ेगी, फलतः अशान्ति का विष-चक्र चलता रहेगा। प्रशम का किनारा नहीं मिलेगा।
पश्चिम के मानसशास्त्रियों का कथन है कि मनुष्य की कुछ इच्छाएँ, तमन्नाएँ कामनाएँ या अभिलाषाएँ होती हैं, उनकी पूर्ति के लिए वह लालायित रहता है। अगर उन आवश्यकताओं, लालसाओं या अभावों की पूर्ति होती रहे तो उसके मन के दुःखी और अशान्त होने का कोई कारण ही न रहे। परन्तु भारतीय तत्त्ववेत्ताओं ने इस विचारधारा को ठीक नहीं माना। उनका कहना है-इच्छाओं और लालसाओं की कोई सीमा नहीं है। एक इच्छा पूरी होते ही दस नयी इच्छाएँ जन्म लेती हैं। इसका मतलब है-इच्छाओं या लालसाओं की पूर्ति करने में जो जिस हद तक सफल होगा, वह उस सीमा तक सन्तुष्ट एवं शान्तियुक्त रहेगा, जितनी सीमा तक असफल होगा, वह उस सीमा तक दुःखी एवं अशान्त रहेगा । उसे सुखी और सन्तुष्ट करने का कोई उपाय पाश्चात्य तत्त्वविदों के पास नहीं है।।
फिर इस सिद्धान्त के अनुसार चलने से तो जो अधिक साधनसम्पन्न, शक्तिशाली और चतुर है, वह अपनी इच्छाओं को येन-केन-प्रकारेण पूरी करके सन्तुष्ट और शान्तिमय रहेगा और जो अभाव-पीड़ित हैं, जिनके पास शक्ति, साधन एवं चातुर्य की कमी है, वे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में पड़े-पड़े रोते-कलपते रहेंगे। इसी दृष्टिकोण ने किसी हद तक संसार में स्वार्थ, संघर्ष, शोषण और साम्राज्यवाद को जन्म दिया है, बढ़ावा दिया है। संसार में फैले अन्याय, अत्याचार एवं स्वार्थ के लिए यही दूषित दृष्टिकोण तउरदायी है।
अत: भारतीय दार्शनिक कहते हैं कि मन की इच्छाओं और लालसाओं की पूर्ति करते रहने या मनमानी करने से सच्ची सुख-शान्ति उपलब्ध नहीं हो सकती, वह तो कामनाओं और लालसाओं में कमी करने से हो सकती है। लालसाओं की पूर्ति ज्यों-ज्यों की जाती है, त्यों-त्यों तृष्णा बढ़ती जाती है, जिसका परिणाम असन्तोष एवं अशान्ति के सिवाय और कुछ नहीं होता। यह चंचल मन अनन्त-असीम इच्छाओं
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