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प्रशम की शोभा : समाधियोग – १ १८१
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उठता, मुँह फिरा लेता और ढेढ़ सेठ को देखकर । दस वर्ष बीत गये लेकिन उनका मनमुटाव समाप्त न हुआ । संयोगवश गाँव में एक बार एक संत का पदार्पण हुआ । सर्वप्रथम ढेढ़ की नजर में वे आये । वह पक्का श्रद्धालु था । सोचा - ' अगर मैं गाँव में किसी को सूचित न करूँगा तो लोग सन्तों के सम्मुख स्वागत के लिए कैसे जायेंगे ? किन्तु उस सेठ को ' मैं देखना-सुनना भी नहीं चाहता, कैसे सूचना दूंगा ? कुछ क्षण तक मन में अन्तर्द्वन्द्व चला। सेठ को सूचना दिये बिना कार्य होना कठिन सा लगता है किन्तु.......।' सहसा उसके हृदय में प्रशम का प्रकाश हुआ जिससे अन्त:करण का सारा अंधकार समाप्त हो गया । सोचा - 'सेठ से साथ मेरा संघर्ष सांसारिक झंझटों को लेकर है, धर्म को लेकर नहीं । हम दोनों का धर्म एक है, गुरु एक हैं, देव एक हैं । धार्मिक कर्तव्य के नाते मुझे सेठ को अवश्य सूचना देनी चाहिए।' विवेक, उदारता और प्रशम का महाप्रकाश लिए वह दौड़ा-दौड़ा सेठ के मकान पर पहुँचा और उच्च स्वर से आवाज लगाई बाहर से ही । सेठ ढेढ़ को अपना नाम पुकारते देख आश्चर्यचकित हुआ। पूछा - " क्यों भाई ! क्या कहते हो ?"
ढेढ़ बोला—“गाँव में सन्त आ रहे हैं ।"
सेठ - " किधर से ?"
ढेढ़ - " उधर से ।" इतना कहकर वह सन्त की अगवानी के लिए उनके सम्मुख जा पहुँचा ।
इधर सेठ भी कई लोगों को इकट्ठे करके सन्तों के सम्मुख पहुँच गया । सन्तों का धर्मस्थान में प्रवेश हुआ, व्याख्यान हुआ । सेठ के मन में प्रशम का दीप जलने से आज उथल-पुथल मची हुई थी । प्रशमभाव ने आज उसकी हृदयतन्त्री को झकझोर डाला था । अतः सेठ ने सोचा - यह ढेढ़ कितना उदार है कि वैमनस्य होते हुए भी सूचना देने मेरे घर पर आया ।
व्याख्यान समाप्त होते ही, सेठ गद्गद स्वर में अपनी आत्मनिन्दा करते हुए परिषद् में खड़े होकर बोला -- " श्रद्धेय मुनिवर और भाइयो ! मैं आज अपने दिल की बात आपके समक्ष रख रहा हूँ । देखिये वह जो ढेढ़ बैठा है, उसके साथ वर्षों से मेरा वैमनस्य चला आ रहा था। मैं समझता हूँ, आज वह मुनिवरों के शुभागमन के निमित्त से समाप्त हो रहा है । मैं स्पष्ट शब्दों में कहूँगा कि यह ढेढ़ उदारचेता होने से सेठ है, और मैं सेठ होते हुए भी ढेढ़ हूँ । मैं संकीर्णहृदय हूँ । अगर मुझे सन्तों के आगमन का पता होता मैं इसे हर्गिज कहने न जाता । ऐसी उदारता करके इसने मेरी कुण्ठित हृदयतन्त्री के तारों को झंकृत कर दिया है । वास्तव में गुण, लक्षण और विवेक से यही सेठ है, मैं ढेढ़ हूँ। मैं अपने अकरणीय कृत्य से लज्जित एवं नतमस्तक हूँ | मैं हाथ जोड़कर इससे क्षमायाचना करता हूँ, वह मेरी क्षमा स्वीकारे और मुझे अपनी ओर से क्षमा प्रदान करे ।”
ढेढ़ ने भी तुरन्त खड़े होकर सबके सामने सेठ को क्षमा प्रदान कर मैत्रीपूर्ण
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