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१०२ आनन्द प्रवचन : भाग १० केवल शब्दों को पकड़ने वाले भी तत्त्व तक नहीं पहुंच पाते
दूसरी ओर कुछ बुद्धिजीवी लोग ऐसे हैं, जो शास्त्र के शब्दों को पकड़कर अपने मनमाने अर्थ की खींचतान करते रहते हैं । कोरा पाण्डित्य और बौद्धिकता भी जीवन के लिए ऐसा खतरा है, जिसका प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता । शस्त्रों का खतरा तो प्रत्यक्ष दिखाई देता है, जबकि शास्त्रों का खतरा साक्षात् दृष्टिगोचर नहीं होता। इसीलिए शंकराचार्य ने कहा है
"अन्य वासनाओं के खतरे से बचना आसान है, लेकिन शास्त्र-वासना से मुक्त होना अत्यन्त दुष्कर एवं दुःशक्य है । शास्त्रजीवी लोग शास्त्र के शब्दों की छीछालेदर करते हैं, वे उन शब्दों की भावना एवं हार्द को नहीं समझते, उनकी आत्मा को नहीं पकड़ते, केवल स्थूल में ही आग्रहपूर्वक लगे रहते हैं । ऐसे शास्त्रजीवी भी तत्त्व को नहीं पकड़ पाते।"
चार पण्डित काशी में बारह वर्ष तक पढ़े, किन्तु उन्होंने सिर्फ शब्द रटे थे, वे उन ग्रन्थों के हृदय तक नहीं पहुंच पाये । वे एक बार अपनी जन्मभूमि की ओर आ रहे थे, तभी नदी के पार एक ऊँट को तेजी से दौड़ता देख उनमें से एक ने सोचा-धर्मग्रन्थों में कहा गया है
__ 'धर्मस्य त्वरिता गतिः।। "धर्म की गति तीव्र है, अतः तीव्र गति से दौड़ने वाला ऊँट ही धर्म है।" दूसरे पण्डित को श्मशान पर गधे को खड़ा देखकर शास्त्र वाक्य याद आ गया।
'राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः ।' "राजद्वार और श्मशान पर जो खड़ा हो, उसे अपना इष्ट बन्धु मानना चाहिए । अतः गधा हमारा इष्ट बन्धु है।" तभी तीसरे पण्डित को याद आया
'इष्टं धर्मेण योजयेत् ।' "इष्ट बन्धु को धर्म के साथ जोड़ देना चाहिए।" अतः उसने ऊंट और गधे को एक साथ बाँध दिया।
अब रहा चौथा पण्डित, उसने नदी पार करते समय अपने पण्डित मित्रों को डूबते देखकर तलवार से उनका सिर इसलिए काट लिया क्योंकि नीतिशास्त्र में कहा गया है
'सर्वनाशे समुत्पन्न अधं त्यजति पण्डितः।' ___ "सम्पूर्ण नष्ट होने की स्थिति में पण्डित आधे को छोड़ देता है, आधे को बचा लेता है।"
उक्त चारों पठित मूों ने-शास्त्र का अवलम्बन लेकर तत्त्व की बातें बघारने वालों ने शास्त्र का कहीं उल्लंघन नहीं किया। शास्त्र के शब्दों और वाक्यों
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