________________
सुसाधु होते तत्त्वपरायण-२
११६
पिता ने दृष्टि ऊपर उठाई और पुत्री के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा"कहो, क्या कहना चाहती हो, बेटी उत्पल !"
तत्त्वज्ञान की गम्भीरता से उत्पलवर्णा कहने लगी-"पिताजी ! आप मुझे सुखी देखना चाहते हैं न ? मैं इन बाह्य विषय-सुखों में सुख नहीं देखती, इनमें तो दुःख के बीज छिपे हुए हैं। विवाह करने से मैं सुखी नहीं हो जाऊंगी; बल्कि विषयजाल में फंसकर और अधिक दुःखी हो जाऊँगी। आपकी चिन्ता मेरे लिए योग्यवर के तलाश की और मेरे झूठे सौन्दर्य की समस्या को हल करने की है। विवाह का प्रस्ताव लेकर आये हुए किसी भी कुमार में मुझे आदर्श गृहस्थोचित जीवन का स्थायित्व नहीं दीखता । ये सब तो रूप के प्यासे कीट-पतंगे हैं। इनसे तो दूर रहना ही अच्छा?
"आपने नहीं सना, उस गंगातीखासी ने पहले विवाह किया। अपनी वासनाएँ शान्त करने के लिए भार्या के जीवन-सत्त्व को निचोड़ा, फिर उसने एक अन्य स्त्री को रख लिया। उसके गर्भ से कन्या पैदा हुई, उसे भी उसने सहगामिनी बनाया । बताइये, जिस समय सामाजिक मर्यादाएँ और व्यवस्थाएं इस प्रकार तिनके की तरह तोड़ दी जाती हैं, नीति कहती है-उस समय तत्त्वज्ञ लोगों को अपने लौकिक और क्षणिक वैषयिक सुखों का परित्याग करके समाज के समक्ष एक आदर्श-वास्तविक सुख का पथ-प्रस्तुत करना चाहिए। इसलिए आप आज्ञा दें तो मैं तथागत बुद्ध से प्रव्रज्या ग्रहण करके आजीवन अविवाहित रह जाऊँ और वैषयिक सुखाभास की चकाचौंध में पथभ्रष्ट समाज को अपनी तत्त्वज्ञान की शक्ति एवं साधना द्वारा सत्यपथ पर लाने का प्रयास करूं।"
आर्य पिता ने अपनी कन्या के सुसंस्कार एवं तत्त्वज्ञान के तेज से चमकते मुखमण्डल की ओर देखा तो उसमें पूर्ण निश्चय की दृढ़ता झलक रही थी। उसे हृदय से लगाते हुए स्नेहपूर्वक कहा-"उत्पल ! तुम धन्य हो ! तुमने सांसारिक सुखों को महत्त्व न देकर साधना के द्वारा अन्तःविराजित सुख प्राप्त करके आत्मकल्याण के साथ समाजकल्याण का मार्ग अपनाने का निश्चय किया है। तुम्हारे इस आदर्श से भारतीय नारी वर्ग और समाज युग-युगों तक प्रकाश और प्रेरणा लेता रहेगा। तुम सुख से प्रवज्या ग्रहण करो । मैं अन्तर से आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारी साधना फले-फूले ।"
और एक दिन उत्पलवर्णा ने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। तथागत बुद्ध ने अपना पितृतुल्य स्नेह, अपनी साधना की शक्ति और अधिकाधिक तत्वज्ञान देकर उसे आत्मिक आनन्द की स्थिति तक पहुँचा दिया।
बन्धुओ ! यह है तत्त्वद्रष्टा साधनाशील के जीवन की उत्कृष्ट स्थिति का दर्शन ! तत्त्वशून्य और तत्त्वनिष्ठ के जीवन में यही बड़ा अन्तर है ।
आपने देखा होगा, सुख-पुविधापूर्ण जीवन बिताने के पर्याप्त साधन उपलब्ध होने पर भी तत्त्वज्ञानशून्य लोग अपनी अज्ञानता और मूढ़ता के कारण सन्तप्त, अशान्त और उद्विग्न रहते हैं। इसके विपरीत तत्त्वज्ञान के धनी सन्त-महात्मा या
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org