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सुसाधु होते तत्त्वपरायण - २ ११७
मैंने एक बार आपके समक्ष मैत्रेयी की आत्मसाधना के सम्बन्ध में कहा था । आज यहाँ प्रसंगवश उसका संक्षेप में उल्लेख करना अनुचित न होगा ।
जिस समय याज्ञवल्क्य आत्मसाधना करने अरण्य में जाने वाले थे, वे पहले अपनी सारी सम्पत्ति एवं सुख- सामग्री अपनी दोनों पत्नियों- कात्यायनी और मैत्रेयी में बाँट देना चाहते थे । जब उन्होंने मैत्रेयी से कहा - "यह आधा धन और ये आ सुख-साधन तुम ले लो, इनसे तुम सुख से जीना और सुख से रहना, " तब मैत्रेयी ने कहा - "क्या आप मुझे यही सम्पत्ति और सामग्री देना चाहते हैं ? अगर ये ही वस्तुएँ मेरे लिए आत्म-कल्याणकारिणी हों तो आप इन्हें छोड़ने को क्यों उद्यत हुए हैं ? क्या मुझे इन सबसे अमृत (आत्म) तत्त्व मिल जाएगा ? जिससे अमृततत्त्व न मिले, उसे लेकर मैं क्या करूँगी ? जिसे लेने के बाद फिर छोड़ना पड़े, या छूट जाए उसे लेकर मैं क्या करूँ ? मुझे तो वह साधना - सम्पत्ति प्रदान कीजिए, जिस साधना से आप आत्मतत्त्व प्राप्त करना चाहते हैं ।"
मतलब यह है कि मैत्रेयी को वह तत्त्वज्ञान मिल गया था, जिससे वह धनसम्पत्ति, भौतिक साधन-सामग्री के असली तत्त्व को प्राप्त कर चुकी थी कि ये सभी नाशवान हैं, पराधीन बनाने वाले हैं, क्षणिक सुख के बदले इनमें असीम दुःख के बीज छिपे हुए हैं । इसी तत्त्वज्ञान के कारण उसे इस विषयसुख- सामग्री से विरक्ति हो गई थी और वह उस असीम, अमृत, शाश्वत सुख को प्राप्त करने के लिए सर्वथा उद्यत हो गई थी । उसने सुलभ और अपने अधिकार में आई हुई विषयसुख - सामग्री को तिलांजलि दे दी और उस अमृततत्त्व की साधना के लिए याज्ञवल्क्य के पथ पर चल पड़ी ।
परमात्म-भक्ति के तत्त्व में मस्त मीराबाई राजस्थान की एक अपूर्व साध्वीमहिला हो गई है । मीराबाई की रग-रग में प्रभुभक्ति का तत्त्व रमा हुआ था, इसलिए उसका विवाह चित्तौड़ के राणा के साथ हो जाने पर भी वह सांसारिक विषयों से विरक्त रही । मीरा के लिए महल था, मनोज्ञ शयनीय साधन सामग्री थी, उत्तमोत्तम वस्त्राभूषण थे, स्वादिष्ट भोज्य सामग्री थी, लेकिन भक्तितत्त्व में लीन मीराबाई का चित्त इन सबसे विरक्त था, उसकी रुचि सांसारिक पदार्थों के उपभोग में नहीं रही । मीराबाई के पति राणाजी ने जब उससे कहा
मीरां ! कुण ही साधुजी यांने भोलव्या ?
मीरां ! हिंगलूरा ढोल्या परिहर्या, थारो चित्त तो चटाई रे मांय, हो मेड़ताणी राणी !
मीरां ! नवसेरो हार जो परिहर्या, थारो चित्त तो तुलसीमाला रे मांय,
॥ हो मेड़ताणी० ॥
मीरां ! महल बगीचा परिहर्ता, थारो चित्त टूटी झंपी रे मांय,
॥ हो मेड़ताणी० ॥
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