________________
१७२ आनन्द प्रवचन : भाग १०
कई बार सिद्धिमदान्ध उग्रतपस्वी गाली, निन्दा, ताड़ना तर्जना आदि करके अपनी असहनशीलता का परिचय देता है । वह भी अपने तप से भ्रष्ट हो जाता है ।
कई बार उग्रतपस्वी आत्मा और शरीर का भेदविज्ञान न होने के कारण जरा-सी विपत्ति, परीषह, कष्ट या संकट आते ही क्षुब्ध हो जाता है, घबरा उठता है, अपने पथ से विचलित हो जाता है और असहिष्णु बनकर उनसे हार खा जाता है, फलतः देहासक्ति, प्राणमोह, अंगोपांगों का मोह, अपनी मानी हुई वस्तु के प्रति मूर्च्छा - ममता आदि विकार उसे घेर लेते हैं, जो उसकी तपस्या को दूषित कर देते हैं, वे किया-कराया सब चौपट कर देते हैं, तप के उद्देश्य को ही समाप्त कर देते हैं । उस उग्रतपस्वी का चित्त असमाधि में पड़ जाता है । जिससे आत्मसमाधि के अभाव में वह शरीर को तो अत्यन्त ताप-संताप देता रहता है, इन्द्रियों और मन को भी मारता रहता है, पर आत्मशान्ति उससे कोसों दूर भाग जाती है ।
जिस उग्रतपस्वी के समक्ष तपस्या का ध्येय स्पष्ट न हो, जिसे तपस्या के महत्त्व और विधि का ज्ञान न हो, तपस्वी के दायित्वों और कर्त्तव्यों का बोध न हो वह सदा फलाकांक्षी होकर सांसारिक सुखभोग के रूप में विविध फलों की कामना करता रहता है, फल प्राप्ति के बारे में उतावला हो उठता है, उसकी तपस्या का ध्येय मोक्षप्राप्ति न होकर स्वर्गादि सुख या इहलौकिक सुख-साधनों की प्राप्ति रहता है । ऐसे अधीर उग्रतपस्वी के तप की शोभा समाप्त हो जाती है ।
इसी प्रकार जिस उग्रतपस्वी में सिद्धियों और लब्धियों को पचाने की क्षमता नहीं है, उनका वह दुरुपयोग करता है, उसका उग्रतप भी शोभास्पद नहीं होता । जिस उग्रतपस्वी में सर्दी-गर्मी, प्राकृतिक प्रकोप या मान-अपमान, यश-अपयश सहने की तितिक्षा शक्ति नहीं है, वह भी अपने उग्रतप को आत्मोन्नतिकारक नहीं
बना पाता ।
क्षमा में उग्रतप की शोभा सन्निहित है
जिस उग्रतपस्वी में क्षमा की वृत्ति हो, जो अपना अपकार करने वाले के प्रति भी क्षमाशील रहता हो, जिसके जीवन में अपने पर प्रहार करने, गाली-गलौज करने, अपशब्द कहने या व्यंग्य कसने वाले के प्रति मन में किसी भी प्रकार का रोष, द्वेष, ईर्ष्या, घृणा, वैरभाव या हिंसक ( मारण - उच्चाटन आदि) प्रतिकार का भाव न हो, वही अपने उग्रतप में चार चाँद लगा देता है । उसका ही उग्रतप लोकश्रद्धेय बनता है, लोककल्याणकारी होता है । उसकी क्षमा के आगे सभी नतमस्तक हो जाते हैं, उसकी सहिष्णुता लोकवन्द्य बनती है । वह उग्रतपस्वी अपने जीवन में किसी का अपकार करना नहीं चाहता, न करता है, मन-वचन काया से । ऐसे क्षमाशील उग्रतपस्वी के हृदय के सम्बन्ध में पाश्चात्य साहित्यकार इमर्सन (Emerson ) कहता हैHis heart was as great as the world, but there was no room in it to hold the memory of a wrong.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org