________________
१३२
आनन्द प्रवचन : भाग १०
शिष्यों सहित उन अनार्य, किन्तु सुलभ बोधि जनपदों में पधारे और अनेक भव्य मानवों को तत्त्वबोध दिया ।
सच्चे तत्त्वनिष्ठ सुसाधु की
पहचान
बहुधा तत्त्वनिष्ठ साधु की पहचान बड़ी कठिन होती है । जो आडम्बरी, वाचाल और प्रपंची होते हैं, वे तत्त्वज्ञानी होने का दावा करते हैं और भोले-भाले लोग उन्हें तत्त्वज्ञ और पहुँचे हुए महात्मा समझ लेते हैं । परन्तु सच्चा तत्त्वनिष्ठ प्रपंची और आडम्बरी नहीं होता, वह विज्ञापन नहीं करता । वह सामान्य से सामान्य कार्य में भी तत्त्वदृष्टिपरायण होता है । एक महात्मा को बगीचे में सफाई करते देखकर कुछ दर्शनार्थी सत्संगी यह कहकर वापस लौटने लगे कि आये थे सत्संग करने, किन्तु आपको कार्य व्यस्त देखकर लौट रहे हैं ।
I
महात्मा ने कहा - "केवल वाणी से ही बोध नहीं मिलता, क्रिया से भी तत्त्वबोध मिलता है । जैसे अभी मैं सफाई कर रहा था । इसके पीछे तत्त्वबोध यह है कि मनोभूमि में जो व्यर्थ का कूड़ा-कर्कट इकट्ठा हो गया है, उसे साफ करके बाहर निकाल दो, तभी सद्विचारों के पौधे लग सकते हैं । इस तरह संसार के प्रत्येक पदार्थ से से तत्त्वबोध मिल सकता है ।" सच्चा तत्त्वनिष्ठ पुरुष अनासक्त कर्मयोग का, पंचेन्द्रिय विषयों में अनासक्तिपूर्वक उपयोग का सुख - शान्ति एवं सौन्दर्य आदि का सच्चा तत्त्व जानता है और उसके अनुसार व्यवहार भी करता है । उसकी अनुभवी आँखें दिव्य तत्त्वज्ञान में लगी रहती हैं । यही उसकी पहचान है । तत्त्वपरायण की पहचान के लिए एक उदाहरण ले लें -
एक धार्मिक व्यक्ति गुरु-दीक्षा लेना चाहता था । सच्चा तत्त्वज्ञानी हो, उसे गुरु बनाना था । गुरु बनने को तो अनेकों साधु तैयार थे, पर वह पहचान नहीं कर पा रहा था कि कौन तत्त्वनिष्ठ गुरु है । उसे चिन्तित देखकर उसकी पत्नी ने चिन्ता का कारण पूछा। उसने कहा - " मैं तत्त्वज्ञानी गुरु की तलाश में हूँ, परन्तु कौन तत्त्वज्ञानी सुसाधु है, उसकी पहचान नहीं कर पा रहा हूँ ।" पत्नी सुनते ही बोली - "यह कौन कठिन बात है, इसकी पहचान मैं कर दूंगी। जिस व्यक्ति को आप गुरु-दीक्षा देने बुलाएँ उसे घर बुला लाया करें। मैं उनकी परीक्षा करके बतला दूंगी कि कौन आपके गुरु बनने के लिए उपयुक्त हैं ।" प्रतिदिन एक - एक तथाकथित तत्त्वज्ञानी को जो गुरु थे, घर पर ले आता था ।
पति बहुत ही प्रसन्न हुआ और बनने की इच्छा से बुलाये जाते
उसकी पत्नी ने एक पिंजरे में कौआ बन्द कर रखा था, जो भी साधु संन्यासी या महात्मा आता, उसी से पूछती - "महाराज ! यह कबूतर ही है न ?"
उसकी मूर्खता भरी बात सुनकर कई साधु हँस पड़ते, कई उपहास करने लगते, कई समझाने लगते कि यह कबूतर नहीं, यह तो साफ कौआ दिखाई देता है, कौन
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org