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उग्रतप की शोभा : शान्ति–२ १५५ भोगनी पड़ती हैं, अपराधियों को जेलों में भयंकर से भयंकर सजाएँ भोगनी पड़ती हैं, पर वे कष्ट, पीड़ाएँ या यातनाएँ तो बलात् सहनी पड़ती हैं, उन्हें स्वेच्छा से कोई नहीं सहता । उस प्रकार के अत्युग्र कष्ट सहने से भी सकाम निर्जरा (मोक्ष योग्य कर्मक्षय) नहीं होती। सकाम निर्जरा तो तब होती है, जब कोई भी किसी प्रकार का कष्ट न दे, रोगादि की पीड़ा न हो, तब भी अपने दुर्दान्त कर्मरिपुओं का क्षय करने के लिए स्वेच्छा से तप किया जाये और उसमें होने वाले भूख-प्यास, अशक्ति, या साधनाभाव को आत्मसमाधिस्थ होकर समभावपूर्वक सहन किया जाये । कर्मों से मुक्ति (मोक्ष) के लिए तप किया जाये, स्वर्गादि-सुखों या इहलौकिक सुखों की लालसा से नहीं।
__अतः कर्मों का क्षय करने हेतु तथा अपनी आवश्यकताओं और उद्दाम इच्छाओं पर रोक लगाने हेतु उग्रतप आवश्यक प्रतीत होता है। वह कष्टकर तो तब होता है, जब कोई जबरदस्ती तप कराता हो, या क्रोधादि आवेश या द्वषादि के वश किया जाता हो । जब वह स्वेच्छा से और वह भी किसी प्रकार के क्रोधादि आवेश में आकर नहीं, अपितु आत्मशुद्धि के लिए समझ-बूझ के साथ किया जाता है, तब ताप न होकर तप होता है।
__यहाँ फिर प्रश्न उठता है कि स्वेच्छा से कर्मक्षय का प्रयोजन क्या सामान्य तप से नहीं सिद्ध हो सकता? क्या उग्रतप जीवन में होना अनिवार्य है ? आप यह तो प्रतिदिन अनुभव करते हैं कि जब आपके शरीर के किसी अंग या हाथ-पैर में मिट्टी लग जाती है तो आप सारे शरीर को साफ नहीं करते, अपितु थोड़े से पानी से उस अंग को या हाथ-पैर को जहाँ मिट्टी लगी हुई है, साफ कर लेते हैं, किन्तु अगर मिट्टी या कीचड़ आपके सारे शरीर में लगा हुआ हो, तो जरा से पानी से आप उसे धोकर साफ नहीं करते, उसके लिए तो अधिक पानी लेकर, साबुन आदि लगाकर मल-मल कर नहाते हैं, तब जाकर सारे शरीर की सफाई (शुद्धि) होती है। इसी प्रकार कर्म-मल आपके मारे जीवन में लगे हों, काफी पुराना कर्मों का दल-दल चिपका हुआ हो, तो वह केवल मामूली तप और वह भी सिर्फ बाह्य तप से साफ नहीं हो सकता, उसके लिए बाह्य तप के साथ-साथ आभ्यन्तर तप और वह भी उग्रतप आवश्यक है, जिससे कर्ममल भलीभांति साफ हो सके, आत्मशुद्धि हो सके।
यह कोई जरूरी नहीं है कि आप प्रतिदिन ही उग्रतप करें या सतत तप करते रहें, परन्तु बीच-बीच में जब आपकी श्रद्धा, शक्ति, भावना तथा पर्युषणादि पर्यों के समय उत्साह हो, तभी आत्मसमाधिपूर्वक उग्रतपश्चरण करें।
उग्रतप करना इसलिए भी आवश्यक है कि जितने भी अधिक कर्मबन्ध हों, उतनी मात्रा में तप करने से ही वह कर्मों का जत्था टूट सकता है । कर्म तो हों बहुत अधिक संचित और आप करें एकाध उपवास, या कोई आभ्यन्तर तप तो उतने से ही वे कर्म नष्ट नहीं हो सकते । कूड़ा-कर्कट या मैल अधिक जमा हो तो उतनी ही मात्रा
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